Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 535
________________ पावश्यकाधिकारः] [४७७ विशुद्धः कायोत्सगों भवतीति ॥६५२॥ कायोत्सर्गिकस्वरूपनिरूपणायाह मुक्खट्ठी जिदणिद्दो सुत्तत्थविसारदो करणसुद्धो। प्रादबलविरियजुत्तो काउस्सग्गो विसुद्धप्पा ॥६५३॥ मोक्षमर्थयत इति मोक्षार्थी कर्मक्षयप्रयोजनः, जिता निद्रा येनासी जितनिद्र: जागरणशीलः सूत्रञ्चार्थश्च सूत्राों तयोविशारदो निपुणः सूत्रार्थविशारदः, करणेन क्रियाया परिणामेन शुद्धः करणशुद्धः आत्माहारशक्तिक्षयोपशमशक्तिसहितः कायोत्सर्गी विशुद्धात्मा भवति ज्ञातव्य इति ॥६५३॥ कायोत्सर्गमधिष्ठातुकामः प्राह- काउस्सग्गं मोक्खपहदेसयं घादिकम्म अदिचारं। इच्छामि अहिट्ठादं जिणसेविद देसिदत्तादो॥६५४॥ कायोत्सर्ग मोक्षपथदेशकं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपकारकं घातिकर्मणां ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायकर्मणामतीचारं विनाशनं घातिकर्मविध्वंसकमिच्छाम्यहमधिष्ठातं यतः कायोत्सर्गो जिनर्देशितः सेवितश्च तस्मात्तमधिष्ठातुमिच्छामीति ॥६५४॥ और भौंह आदि का विकार-हलन-चलन नहीं है, एवं जो सर्व आक्षेप से रहित है, इस प्रकार से जो विशुद्ध है वह कायोत्सर्ग होता है । कायोत्सर्गी का स्वरूप निरूपित करते हैं... गाथार्थ--मोक्ष का इच्छुक, निद्राविजयी, सूत्र और उसके अर्थ में प्रवीण, क्रिया से शुद्ध, आत्मा के बल और वीर्य से युक्त, विशुद्ध आत्मा कायोत्सर्ग को करनेवाला होता है ॥६५३॥ प्राचारवृत्ति-जो मोक्ष को चाहता है वह मोक्षार्थी है अर्थात् कर्म क्षय के प्रयोजन वाला है। जिसने निद्रा जीत ली है वह जागरणशील है । जो सूत्र और उनके अर्थ इन दोनों में निपूण है, जो तेरह प्रकार की क्रिया और परिणाम से शुद्ध-निर्मल है, जो आत्मा की आहार से होनेवाली शक्ति और कर्मों के क्षयोपशम की शक्ति से सहित है ऐसा विशुद्ध आत्मा कायोत्सर्गी होता है। कायोत्सर्ग के अनुष्ठान की इच्छा करते हुए आचार्य कहते हैं गाथार्थ-जो मोक्ष मार्ग का उपदेशक है, घाति कर्म का नाशक है, जिनेन्द्रदेव द्वारा सेवित है और उपदिष्ट है ऐसे कायोत्सर्ग को मैं धारण करना चाहता हूँ ॥६५४॥ आचारवृत्ति-कायोत्सर्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का उपकारक है; ज्ञानावाण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों का विध्वंसक है, ऐसे कायोत्सर्ग का मैं अधिष्ठान करना चाहता हूँ क्योंकि वह जिनवरों द्वारा सेवन किया गया है और उन्हीं के द्वारा कहा गया है। १क जिनेन्द्रदेशितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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