Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 542
________________ [मूलाचारे कायोत्सर्गे स्थितः सन् ईर्यापथस्यातीचारं विनाशं चिन्तयन् तं नियमं सर्व निरवशेषं समाप्य समाप्ति नीत्वा पश्चाद्धर्मध्यानं शुक्लध्यानं च चिन्तयत्विति ।। ६६६॥ ४e४] तथा---- तह दिवसिय रादियपक्खिय चदुमासियवरिसचरिमेसु । तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च झायेज्जो ॥६६७॥ एवं यथा ईयपथातीचारार्थं देवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकोत्तमार्थान् नियमान् तान् समाप्य धर्मध्यानं शुक्लध्यानं ध्यायेत्, न तावन्मात्रेण तिष्ठेदित्यनेनालस्याद्यभावः कथितो भवतीति ॥ ६६७ ॥ कायोत्सर्गस्य दृष्टं फलमाह Jain Education International काकदे जह भिज्जदि श्रंगुवंगसंधीश्रो । तह भिज्जदि कम्मरयं काउर सग्गस्स करणेण ।।६६८ ।। श्राचारवृत्ति - कायोत्सर्ग में स्थित होकर साधु ईर्यापथ के अतीचार के विनाशका चिन्तवन करते हुए उन सब नियमों को समाप्त करके पुनः धर्मध्यान और शुक्लध्यान का अवलम्बन लेवे । उसी को और बताते हैं गाथार्थ - उसी प्रकार से दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इन सब नियमों को समाप्त करके धर्म और शुक्ल ध्यान का चितवन करे ।। ६६७॥ आचारवृत्ति - जैसे पूर्व की गाथा में ईर्यापथ के अतीचार के लिए बताया है वैसे ही दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और औत्तमार्थ इन नियम - प्रतिक्रमणों को समाप्त करके — पूर्ण करके पुनः वह साधु धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को ध्यावे, उतने मात्र से ही संतोष नहीं कर लेवे, इस कथन से आलस्य आदि का अभाव कहा गया है । भावार्थ - ईर्यापथ, देवसिक, रात्रिक आदि भेदों से प्रतिक्रमण के सात भेद कहे गए हैं, सो ये अपने-अपने नामों के अनुसार उन-उन सम्बन्धी दोषों के दूर करने हेतु ही हैं । इन प्रतिक्रमणों के मध्य कायोत्सर्ग करना होता है, उसके उच्छ्वासों का प्रमाण बता चुके हैं । यहाँ यह कहना है कि इन प्रतिक्रमणों को पूर्ण करके साधु उतने मात्र से ही संतुष्ट न हो जावे, किन्तु आगे आलस्य को छोड़कर धर्मध्यान करे या शक्तिवान् है तो शुक्लध्यान करे, प्रतिक्रमण मात्र से ही अपने को कृतकृत्य न मान बैठे | कायोत्सर्ग का प्रत्यक्ष फल दिखाते हैं---- गाथार्थ - कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंग- उपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं। वैसे ही कायोत्सर्ग के करने से कर्मरज अलग हो जाती है ॥ ६६८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580