________________
[ ४८५
कायोत्सर्गे हि स्फुटं कृते यथा भिद्यन्तेऽगोपांगसंधयः शरीरावयवास्तथा भिद्यते कर्म रजः कायोत्सर्ग
Narratorfधकार: ]
करणेनेति ॥ ६६८ ॥
द्रव्यादिचतुष्टयापेक्षमाह
बलवोरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं । कासगं कुज्जा इसे दु दोसे परिहरंतो ||६६६॥
बलवीर्य चोपधायाहारशक्ति वीर्यान्तरायक्षयोपशमं वाऽऽश्रित्य क्षेत्रबलं कालबलं चाश्रित्य शरीरं व्याध्यनुपहत संहनन वज्रर्ष मनाराचादिकमपेक्ष्य कायोत्सर्ग कुर्यात्, इमांस्तु हरन्निति ।। ६६ ।।
कथ्यमानान्
दोषान्परि
तान् दोषानाह
घोडय लदा य खंभे कुड्डे माले सवरबधू णिगले । लंबुत्तरथण दिट्ठी वायस खलिणे जुग कविट्ठे ॥६७०॥
सीeपकंपिय मुइयं अंगुलि भूविकार वारुणीपेयी । काओसग्गेण ठिदो एदे दोसे परिहरेज्जो ॥ ६७१ ॥
प्राचारवृत्ति - कायोत्सर्ग में हलन चलन रहित शरीर के स्थिर होने से जैसे शरीर के अवयव भिद जाते हैं वैसे ही कायोत्सर्ग के द्वारा कर्मधूलि भी आत्मा से पृथक् हो जाती है । द्रव्य आदि चतुष्टय की अपेक्षा को कहते हैं
पार्थ - बल-वीर्य, क्षेत्र, काल और शरीर के संहनन का आश्रय लेकर इन दोषों का परिहार करते हुए साधु कायोत्सर्ग करे || ६६६॥
श्राचारवृत्ति - औषधि और आहार आदि से हुई शक्ति को बल कहते हैं तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की शक्ति को वीर्य कहते हैं । इन बल और वीर्य को देखकर तथा क्षेत्रबल और कालबल का भी आश्रय लेकर व्याधि से रहित शरीर एवं वज्रवृषभनाराच आदि संहनन की भी अपेक्षा करके साधु कायोत्सर्ग करे । तथा आगे कहे जाने वाले दोषों का परिहार करते हुए कायोत्सर्ग धारण करे । अर्थात् अपनी शरीर शक्ति, क्षेत्र, काल आदि को देखकर उनके अनुरूप कायोत्सर्ग करे । अधिक शक्ति होने से अधिक समय तक कायोत्सर्ग में स्थिति रह सकती है अतः अपनी शक्ति को न छिपाकर कायोत्सर्ग करे ।
Jain Education International
कायोत्सर्ग के दोषों को कहते हैं
गाथार्थ - घोटक, लता, स्तम्भ, कुड्य, माला, शबरबधू, निगड, लम्बोत्तर, स्तनदृष्टि, वायस खलिन युग और कपित्थ- ये तेरह दोष हुए ।
शोश-प्रकम्पित, मूकत्व, अंगुलि, भ्रूविकार और वारुणीपायी ये पाँच हुए, इस प्रकार इन अठारह दोषों का परिहार करे ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org