________________
४६६ ]
[मूलाचारे
नामप्रत्याख्यानं प्रत्याख्याननाममात्र वा अयोग्याः स्थापनाः पापबंध हेतुभूताः मिथ्यात्वादिप्रवर्त्तका अपरमार्थरूपदेवतादिप्रतिविद्यानि पापकारणद्रव्यरूपाणि च न कर्तव्यानि न कारयितव्यानि नानुमन्तव्यानि इति स्थापनाप्रत्याख्यानं । प्रत्यख्यानपरिणत प्रतिबिंबं च सद्भावासद्भावरूपं स्थापनाप्रत्याख्यानमिति, पापबन्धकारणद्रव्यं सावद्यं निरवद्यमपि तपोनिमित्तं त्यक्तं न भोक्तव्यं न भोजयितव्यं नानुमंतव्यमिति द्रव्यप्रत्याख्यानं । प्राभृतज्ञायकोऽनुपयुक्तस्तच्छरीरं भावी जीवस्तद्व्यतिरिक्तं च द्रव्यप्रत्याख्यानं । असंयमादिहेतुभूतस्य क्षेत्रस्य परिहारः क्षेत्रप्रत्याख्यानं, प्रत्याख्यानपरिणतेन सेवितप्रदेशे' प्रवेशो वा क्षेत्रप्रत्याख्यानं, असंयमादिनिमित्तभूतस्य' कालस्य - त्रिधा परिहारः कालप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानपरिणतेन सेवितकालो वा, मिथ्यात्वासंयमकषायादीनां त्रिविधेन परिहारो भावप्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यानप्राभृतज्ञायकस्तद्विज्ञानं प्रदेशादित्येवमेष नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविषय: प्रत्याख्याने निक्षेपः षड्विधो ज्ञातव्य इति । प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानयोः को विशेष इति चेन्नैष
रखना चाहिए, न रखवाना चाहिए और न रखते हुए को अनुमोदना ही देनी चाहिए - यह नाम प्रत्याख्यान है । अथवा प्रत्याख्यात नाम मात्र किसी का रख देना नाम प्रत्याख्यान है । अयोग्य स्थापना- - मूर्तियाँ पापबन्ध के लिए कारण हैं, मिथ्यात्व आदि की प्रवर्तक हैं, और अवास्तविक रूप देवता आदि के जो प्रतिबिम्ब हैं वे भी पाप के कारण रूप द्रव्य हैं ऐसी अयोग्य स्थापना को न करना चाहिए, न कराना चाहिए और करते हुए को अनुमोदना देना चाहिए यह स्थापना प्रत्याख्यान है । अथवा प्रत्याख्यान से परिणत हुए मुनि आदि का प्रतिबिम्ब जोकि तदाकार हो या अतदाकार, वह भी स्थापना प्रत्याख्यान है ।
पापबन्ध के कारणभूत सावद्य - सदोष द्रव्य तथा तप के निमित्त त्याग किए नये जो निरवद्य -- निर्दोष द्रव्य भी हैं ऐसे सदोष और त्यक्त रूप निर्दोष द्रव्य को भी न ग्रहण करना चाहिए न कराना चाहिए और न अनुमोदना देनी चाहिए । यहाँ आहार सम्बन्धी तो खाने में अर्थात् भोग में आयेगा और उसके अतिरिक्त भी द्रव्य उपकरण आदि उपभोग में आयेंगे किन्तु 'भोक्तव्यं' क्रिया से यहा पर मुख्यतया भोजन सम्बन्धी द्रव्य की विवक्षा है, इस तरह यह द्रव्य प्रत्याख्यान है अथवा प्रत्याख्यान शास्त्र का ज्ञाता और उसके उपयोग से रहित जीव, उसका शरीर, भावी जीव और उससे व्यतिरिक्त ये सब द्रव्य प्रत्याख्यान हैं ।
असंयम आदि के लिए कारणभूत क्षेत्र का परिहार करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है, अथवा प्रत्याख्यान से परिणत हुए मुनि के द्वारा सेवित प्रदेश में प्रवेश करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है ।
असंयम आदि के कारणभूत काल का मन-वचन-काय से परिहार करना कालप्रत्याख्यान है । अथवा प्रत्याख्यान से परिणत हुए मुनि के द्वारा सेवितकाल काल - प्रत्याख्यान है । मिथ्यात्व असंयम, कषाय आदि का मनवचनकाय से परिहार - त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है । अथवा भाव प्रत्याख्यान के शास्त्र के ज्ञाता जीव को या उसके ज्ञान को या उसके आत्म प्रदेशों को भी भाव प्रत्याख्यान कहते हैं। इस प्रकार से नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयक छह प्रकार का निक्षेप प्रत्याख्यान में घटित किया गया है । प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में क्या अन्तर है ?
भूतकाल विषयक अतीचारों का शोधन करना प्रतिक्रमण है, और भूत, भविष्यत् १. क देशो वा । २. क दिहेतुभूतस्य ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org