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पगवश्यकाधिकारः]
[४३३ जे दव्वपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेहिं सुदणाणे ।
ते तह सद्दहदि णरो दंसणविणप्रोत्ति णादवो ॥५८७॥
ये द्रव्यपर्यायाः खलूपदिष्टा जिनवरैः श्रुतज्ञाने तांस्तथैव श्रद्दधाति यो नरः स दर्शनविनय इति ज्ञातव्यो भेदोपचारादिति ॥५८७॥
अथ ज्ञाने किमर्थं विनयः क्रियते इत्याशकायामाह
णाणी गच्छदिणाणी वंचदि णाणी णवं च णादियदि ।
णाणेण कुणदि चरणं तह्मा णाणे हवे विणो ॥५८८।।
यस्माज्ज्ञानी गच्छति मोक्षं जानाति वा गतेनिगमनप्राप्तयर्थकत्वात्, यस्माच्च ज्ञानी वंचति परिहरति पापं यस्माच्च ज्ञानी नवं कर्म नाददाति न बध्यते कर्मभिरिति यस्माच्च ज्ञानेन करोति चरणं चारित्रं तस्माच्च ज्ञाने भवति विनयः कर्त्तव्य इति ॥५८८॥
अथ चारित्रे विनयः किमर्थं क्रियत इत्याशंकायामाह
पोराणय कम्मरयं चरिया रित्तं करेदि जदमाणो।
णवकम्म ण य बंधदि चरित्तविण ओत्ति णादव्वो॥५८९।। चिरंतनकर्मरजश्चर्यया चारित्रेण रिक्तं तुच्छं करोति यतमानश्चेष्टमानो नवं कर्म च न बध्नाति यस्मात, तस्माच्चारित्रे विनयो भवति कर्त्तव्य इति ज्ञातव्यः ॥५८६।।
- गाथार्थ-जिनेन्द्रदेवों ने श्रुतज्ञान में निश्चय से जिन द्रव्य पर्यायों का उपदेश दिया है मनुष्य उनका वैसा ही श्रद्धान करता है वह दर्शनविनय है ऐसा जानना चाहिए ॥५८७॥
प्राचारवत्ति-जिनवरों ने द्रव्यादिकों का जैसा उपदेश दिया है जो मनुष्य उनका वैसा ही श्रद्धान करता है वह मनुष्य ही दर्शनविनय है। यहाँ पर गुण-गुणी में अभेद का उपचार किया गया है।
अब ज्ञान की किसलिए विनय करना? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-ज्ञानी जानता है, ज्ञानी छोड़ता है, और ज्ञानी नवीन कर्म को नहीं ग्रहण करता है, ज्ञान से चारित्र का पालन करता है इसलिए ज्ञान में विनय होवे ॥५८८॥
आचारवृत्ति-जिस हेतु से ज्ञानी मोक्ष को प्राप्त करता है अथवा जानता है। गति अर्थ वाले धातु ज्ञान, गमन और प्राप्ति अर्थवाले होते हैं ऐसा व्याकरण का नियम है अतः यहाँ गच्छति का जानना और प्राप्त करना अर्थ किया है। जिससे ज्ञानी पाप की वंचना-परिहार करता है और नवीन कर्मों से नहीं बँधता है तथा ज्ञान से चारित्र को धारण करता है इसीलिए ज्ञान में विनय करना चाहिए।
चारित्र में विनय क्यों करना ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ साधु चारित्र से पुराने कर्मरज को खाली करती है और नूतन कर्म नहीं बाँधता है इसलिए उसे चारित्रविनय जानना चाहिए ॥५८६॥
प्राचारवृत्ति यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ मुनि अपने आचरण से चिरकालीन कर्मधूलि को तुच्छ-समाप्त या साफ कर देता है तथा नूतन कर्मों का बंध नहीं करता है अतः चारित्र में विनय करना चाहिए।
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