Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 501
________________ festareer funre: ] [ ४४३ दोगदं द्वे अवनती पंचनमस्कारादावेकावनतिर्भूमिसंस्पर्शस्तथा चतुर्विंशतिस्तवादी द्वितीयाऽवनतिः शरीरनमनं द्व े अवनती जहाजादं - यथाजातं जातरूपसदृशं क्रोधमानमायासंगादिरहितं । वारसावतमेव यद्वादशावर्ता एवं च पंचनमस्कारोच्चारणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयस्त्रय आवर्त्तास्तथा पंचनमस्कारसमाप्तो मनोवचनकायानां शुभवृत्तयत्रीण्यन्यान्यावर्त्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादी मनोवचनकायाः शुभवृत्तयस्त्रीण्यपराण्यावर्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवसमाप्तौ शुभमनोवचनकायवृत्तयस्त्रीया - M वर्त्तनान्येवं द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावर्ता भवति, अथवा चतसृषु दिक्षु चत्वारः प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवंति चदुस्सिरं चत्वारि शिरांसि पंचनमस्कारस्यादावंते च करमुकुलांकित श्राचारवृत्ति - दो अवनति - पंच नमस्कार के आदि में एक बार अवनति अर्थात् भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि में दूसरी बार अवनति - शरीर का नमाना अर्थात् भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करना ये दो अवनति हैं । यथाजातजातरूपसदृश क्रोध, मान, माया और संग - परिग्रह या लोभ आदि रहित कृतिकर्म को मुनि करते हैं । द्वादश आवर्त - पंच नमस्कार के उच्चारण के आदि में मन वचन काय के संयमन रूप शुभयोग की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त पंचनमस्कार की समाप्ति में मनवच नकाय की शुभवृत्ति · होना ये तीन आवर्त, तथा चतुर्विंशति स्तव की आदि में मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त एवं चतुर्विंशति स्तव की समाप्ति में शुभ मन वचन काय की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त - ऐसे मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति रूप बारह आवर्त होते हैं । अथवा चारों ही दिशाओं में चार प्रणाम एक भ्रमण में ऐसे ही तीन बार के भ्रमण में बारह हो जाते हैं । चतुः शिर - पंचनमस्कार के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके अंजलि जोड़कर माथे से लगाना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके माथे से लगाना ऐसे चार शिर - शिरोनति होती हैं । इस तरह इसे एक कृतिकर्म में दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं। मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक मुनि इस विधानयुक्त यथाजात कृतिकर्म का प्रयोग करें। विशेषार्थ — एक बार के कायोत्सर्ग में यह उपर्युक्त विधि की जाती है उसी का नाम कृतिकर्म है । यह विधि देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारम्भ में की जाती है । जैसे देववन्दना में चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में = 'अथ पौर्वाह्निक- देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा वन्दना - स्तवसमेतं श्री चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं । यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें। यह एक अवनति हुई । अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके 'णमो अरिहंताणं चत्तारिमंगलं... अड्ढाइज्जदीव ं [..इत्यादि पाठ बोलते हुए दुच्चरियं वोस्सरामि' तक पाठ बोले यह सामायिकस्तव' कहलाता है । पुनः तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह सामायिक दण्डक के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुई । पुनः नौ बार णमोकार मन्त्र को सत्ताईस वासोच्छ्वास में जपकर भूमिस्पर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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