Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 514
________________ [मूलाचारे वितस्तिहस्तधनुःक्रोशयोजनादिप्रमितः कालः घटिका मुहूर्त बलवदिवस रात्रिपक्षमा सर्वंयनसंवत्सरसंध्यापर्वादि:, भावः परिणामरागद्वेषादिमदादिलक्षणः, एतद्विपयादतिकारान्निवर्तनपरो जीवः प्रतिक्रामक इत्युच्यते ज्ञेयाकारवहिर्व्यावृत्तरूपः, अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयादतिचारात्प्रतिगच्छति निवर्त्तते स प्रतिक्रामकोऽथवा येन परिणामेनाक्ष रकदंबकेन वा प्रतिगच्छति पुनर्याति यस्मिन् व्रतशुद्धिपूर्वकस्वरूपे यस्मिन् वा जीवे पूर्वव्रतशुद्धिपरिणतेतीचा परिभूतं स परिणामोज्झरसमूहो' वा तस्य व्रतस्य तस्य वा व्रतशुद्धिपरिणतस्य जीवस्थ भवेत्प्रतिक्रमणं व्रतविषयमतीचारं येन परिणामेन प्रक्षाल्य प्रतिगच्छति पूर्वव्रत शुद्धौ स परिणामस्तस्य जीवस्य भवेत्प्रतिक्रमणमिति । मिथ्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं द्रव्य क्षेत्रकालभावमाश्रित्य प्रतिक्रमण मिति वा ।। ६१७॥ ४५६] प्रतिक्रमितव्यं तस्य स्वरूपमाह- पुस्तक, औषध, और उपकरण आदि द्रव्य हैं। सोने, बैठने, खड़े होने, गमन करने आदि विषयक भूमिप्रदेश क्षेत्र हैं जोकि अंगुल, वितस्ति, हाथ, कोश, योजन आदि से परिमित होता है । घड़ी, मुहूर्त, समय, लव, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, संध्या और पर्वादि दिवस ये सब काल हैं । राग, द्वेष, मद आदि लक्षण परिणाम भाव हैं । इन द्रव्य आदि विषयक अतिचार से निवृत्त होनेवाला जीव प्रतिक्रामक कहलाता है । अर्थात् ज्ञेयाकार से परिणत होकर द्रव्य क्षेत्रादि से पृथक् रहनेवाला - अतिचारों से हटनेवाला आत्मा प्रतिक्रामक है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावनिमित्तक अतिचारों से जो वापस आता है वह प्रतिक्रामक है । जिन परिणामों से या जिन अक्षर समूहों से यह जीव जिस व्रतशुद्धिपूर्वक अपने स्वरूप में वापस आ जाता है, अथवा पूर्व के व्रतों की शुद्धि से परिणत हुए जीव में वापस आ जाता है, अतीचार को तिरस्कृत करने रूप वह परिणाम अथवा वह अक्षर समूह उस व्रत के अथवा व्रतों की शुद्धि से परिणत हुए जीव का प्रतिक्रमण है । अर्थात् व्रत शुद्धि के परिणाम या प्रतिक्रमण पाठ के दण्डक प्रतिक्रमण कहलाते हैं । यह जीव जिन परिणामों से व्रतों में हुए अतीचारों का प्रलाक्षन करके पुनः पूर्व के व्रत की शुद्धि में वापस आ जाता है अर्थात् उसके व्रत पूर्ववत् निर्दोष हो जाते हैं वह परिणाम उस जीव का प्रतिक्रमण है । अथवा 'मिथ्या मे दुष्कृतं' इस शब्द से अभिव्यक्त है प्रतिक्रिया जिसकी ऐसा वह प्रतिक्रमण होता है, जोकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से होता है । भावार्थ - टीकाकार ने भाव प्रतिक्रमण और द्रव्य प्रतिक्रमण इन दोनों की अपेक्षा से प्रतिक्रमण का अर्थ किया । जिन परिणामों से दोषों का शोधन होता है वे परिणाम भाव प्रतिक्रमण हैं एवं जिन अक्षरों का उच्चारण अर्थात् 'मिच्छा में दुक्कडं' इत्यादि दण्डकों का उच्चारण करना द्रव्यप्रतिक्रमण है । ये शब्द भी दोषों को दूर करने में हेतु होते हैं । इस गाथा में प्रतिक्रामक और प्रतिक्रमण इन दो का लक्षण किया है । 1 अब प्रतिक्रमितव्य का स्वरूप कहते हैं- १ क हो वा तस्य वा व्रतशुद्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580