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। मूलाचार
चयेत् यत्किचिदनाभोगकृतं कर्माभोगकृतं कायवाइमनोभिः कृत च पापं तत्सर्वमव्याक्षिप्तचेतसाऽनाकूलितचेतसालोचयेदिति ॥६२२॥
आलोचनापर्यायनामान्याह--
अालोचणमालुचण विगडीकरणं चा भावसुद्धी दु।
अालोचदह्मि पाराधणा प्रणालोचणे भज्जा ॥६२३।।
आलोचनमालुंचनमपनयनं विकृतीकरणमाविष्करणं भावशुद्धिश्चेत्येकोऽर्थः । अथ किमर्थमालोचनं क्रियत इत्याशंकायामाह-यस्मादालोचिते चरित्राचारपूर्वकेण गुरवे निवेदिते चेति आराधना सम्यग्यदर्शनज्ञानचारित्रशुद्धिरनालोचने पुनर्दोषाणामनाविष्करणे पूनर्भाज्याऽऽराधना तस्मादालोचयितव्यमिति ॥६२३॥
आलोचने कालहरणं न कर्त्तव्यमिति प्रदर्शयन्नाह--
उप्पण्णा उप्पण्णा माया अणवसो णिहंतव्वा ।
अालोचणिदणगरहणाहिं ण पुणो तिनं विदिग्रं ॥६२४॥ उत्पन्नोत्पन्ना यथा यथा संजाता माया व्रतातीचारोऽनुपूर्वशोनुक्रमेण यस्मिन् काले यस्मिन् क्षेत्रे
दोष है, अर्थात् अपने व्रतों के अतिचारों को चाहे दूसरे जान चुके हों या नहीं जानते हों ऐसे आभोगकृत दोष और अनाभोग दोष, तथा मनवचनकाय से हुए जो भी दोष हुए हैं, साधु अनाकुलचित्त होकर उन सबकी आलोचना करे।
आलोचना के पर्यायवाची नाम को कहते हैं
गाथार्थ-आलोचन, आलुंचन, विकृतिकरण और भावशुद्धि ये एकार्थवाची हैं। आलोचना करने पर आराधना होती है और आलोचना नहीं करने पर विकल्प है ।।६२३।।
आचारवत्ति-आलोचना और आलंचन इन दो शब्दों का अर्थ अपनयन-दूर करना है, विकृतीकरण का अर्थ दोष प्रगट करना है तथा भावशुद्धि ये चारों ही शब्द एक अर्थ को कहने वाले हैं।
किसलिए आलोचना की जाती है ? • गुरु के सामने चारित्राचारपूर्वक दोषों को आलोचना कर देने पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शद्धिरूप आराधना सिद्ध होती है । तथा दोषों को प्रकट न करने से पुनः वह आराधना वैकल्पिक है अर्थात् हो भी, नहीं हो भी, इसलिए आलोचना करनी चाहिए।
आलोचना करने में कालक्षेप नहीं करना चाहिए, इस बात को दिखाते हैं
गाथार्थ-जैसे-जैसे उत्पन्न हुई माया है उसको उसी क्रम से नष्ट कर देना चाहिए। आलोचना, निंदन और गर्हण करने में पुनः तीसरा या दूसरा दिन नहीं करना चाहिए ॥६२४॥
आचारवृत्ति-जिस-जिस प्रकार से माया अर्थात् व्रतों में अतीचार हुए हैं, अनुक्रम से १ क 'कुलचित्तेनवालो ।
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