Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 515
________________ बगवश्यकाधिकारः] पडिकमिदव्वं दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं तिविहं। खेत्तं च गिहादीयं कालो दिवसादिकालह्मि ॥६१८॥ प्रतिक्रमितव्यं परित्यजनीयं । किं तत् द्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधं । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तं द्विपदचतुष्पदाद्यचित्तं सुवर्णरूप्यलोहादिमिथं वस्त्रादियुक्तद्विपदादि । तथा क्षेत्रं गृहपत्तनकूपवाप्यादिकं प्रतिक्रमितव्यं तथा कालो दिवसमुहूर्तराविवर्षाकालादिः प्रतिक्रमितव्यः । येन द्रव्येण क्षेत्रेण कालेन वा पापागमो भवति तत द्रव्यं तत् क्षेत्रं स काल परिहरणीयः द्रव्यक्षेत्रकालाश्रितदोषाभाव इत्यर्थः । काले च प्रतिक्रमितव्यं यस्मिन काले च प्रतिक्रमणमुक्तं तस्मिन् काले कर्तव्यमिति, अथवा कालेऽष्टमीचतुर्दशीनंदीश्वरादिके द्रव्यं क्षेत्र प्रतिक्रमितव्यं कालश्च दिवसादिः प्रतिक्रमितव्य उपवासादिरूपेण, अथवा 'भावो हि' पाठान्तरं भावश्च प्रतिक्रमितव्य इति । अप्रासुकद्रव्यक्षेत्रकालभावास्त्याज्यास्तद्वारेणातीचाराश्च परिहरणीया इति ॥६१८॥ भावप्रतिक्रमणमाह मिच्छत्तपडिक्कमणं तह चेव प्रसंजमे पडिक्कमणं। कसाएसु पडिक्कमणं जोगेसु य अप्पसत्थेसु ॥६१६॥ गाथार्थ-सचित्त, अचित्त और मिश्र ये तीन प्रकार का द्रव्य, गृह आदि क्षेत्र, दिवस आदि समय रूप काल प्रतिक्रमण करने योग्य हैं ॥६१८॥ प्राचारवत्ति-त्याग करने योग्य को प्रतिक्रमितव्य कहते हैं। वह क्या है ? सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का जो द्रव्य है, वह त्याग करने योग्य है। द्विपददास-दासी आदि और चतुष्पद-गाय, भैंस आदि ये सचेतन पदार्थ सचित्त हैं। सोना, चांदी, लोहा आदि पदार्थ अचित्त हैं, और वस्त्रादि युक्त मनुष्य, नौकर-चाकर आदि मिश्र हैं । ये तीनों प्रकार के द्रव्य त्याग करने योग्य हैं। गृह, पत्तन, कूप, बावड़ी आदि क्षेत्र त्यागने योग्य हैं। मुहूर्त, दिन, रात, वर्षाकाल आदि काल त्यागने योग्य हैं। अर्थात् जिन द्रव्यों से, जिन क्षेत्रों और जिन कालों से पाप का आगमन होता है वे द्रव्य, क्षेत्र, काल छोड़ने योग्य हैं । अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र और काल के आश्रित होनेवाले दोषों का निराकरण करना चाहिए। काल में प्रतिक्रमण का अभिप्राय यह है कि जिसकाल में प्रतिक्रमण करना आगम में कहा गया है उस काल में करना । अथवा काल में अष्टमी, चतुर्दशी, नंदीश्वर आदि काल में द्रव्य क्षेत्र का प्रतिक्रमण करना और दिवस आदि काल का भी उपवास आदि रूप से प्रतिक्रमण करना । अथवा 'भावो हि' ऐसा पाठांतर भी है। उसके आधार से 'भाव का प्रतिक्रमण करना चाहिए' ऐसा अर्थ होता है । तात्पर्य यह हुआ कि अप्रासुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव त्याग करने योग्य हैं और उनके द्वारा होनेवाले अतिचार भी त्याग करने योग्य हैं। भावप्रतिक्रमण का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण तथा असंयम का प्रतिक्रमण, कषायों का प्रतिक्रमण और अप्रशस्त योगों का प्रतिक्रमण, यह भावप्रतिक्रमण है॥६१६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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