Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 508
________________ ४५० ] तथा- मूगं च मूकश्च मूक इव मुखमध्ये यः करोति वन्दनामथवा वन्दनां कुर्वन् हुंकारांगुल्यादिभिः संज्ञां च यः करोति तस्य मूकदोषः, ददुरं दर्दुरं आत्मीयशब्देनान्येषां शब्दानभिभूय महाकलकलं वृहद्गलेन कृत्वा यो वन्दना करोति तस्य दर्दुरदोष:, अविचु गुलिमपछि अपि चुलितमपश्चिम एकस्मिन्प्रदेशे स्थित्वा कर मुकुलं संभ्राम्य सर्वेषां यो वन्दनां करोत्यथवा पंचमादिस्वरेण यो वन्दनां करोति तस्य चुरुजितदोषो भवत्यपश्चिमः । एतैर्द्वात्रिंशद्दोषैः परिशुद्ध विमुक्तं यदि कृतिकर्म प्रयुक्ते करोति साधुस्ततो विपुलनिर्जराभागी भवति ।। ६० ।। यदि पुनरेवं करोति तदा किदियमपि करतो ण होदि विदयम्मणिज्जराभागी । बत्तीसाद साहू ठाणं विराहंतो ॥ ६१०|| [ मुलाचारे कृतिकर्म कुर्वन्नपि न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी कृतिकर्मणा या कर्मनिर्जरा तस्याः स्वामी न स्यात्, यदि द्वात्रिंशद्दोषेभ्योऽन्यतरं स्थानं दीपं निवारयन्नाचरन् क्रियाकर्म कुर्यात्साधुरिति । अथवा द्वात्रिंशदोषेभ्योऽन्यतरेण दोषेण स्थानं कायोत्सर्गादिवन्दनां विराधयन्कुर्वीतेति ॥ ६१०॥ ३०. मूक — गूंगे के समान मुख में ही जो वन्दना का पाठ बोलता है अथवा वन्दना करने में 'हुंकार' आदि शब्द करते हुए या अंगुली आदि से इशारा करते हुए जो वन्दना करता है उसके मूक दोष होता है । ३१. दर्दुर- अपने शब्दों से दूसरों के शब्दों को दवाकर महाकलकल ध्वनि करते हुए ऊँचे स्वर से जो वन्दना करता है उसके दर्दुर दोष होता है । ३२. चुलुलित- एक प्रदेश में खड़े होकर मुकुलित अंगुलि को घुमाकर जो सभी की वन्दना कर लेता है या जो पंचम आदि स्वर से वन्दना पाठ करता है उसके चुलुलित दोष होता है । Jain Education International यदि साधु इन बत्तीस दोषों से रहित कृतिकर्म का प्रयोग करता है- वन्दना करता है तो वह विपुल कर्मों की निर्जरा करता है ऐसा समझना । यदि पुनः ऐसा करता है तो लाभ है उसे ही ग्रन्थकार स्वयं बताते हैं- गाथार्थ - इन बत्तीस स्थानों में से एक भी स्थान की विराधना करता हुआ साधु कृतिकर्म को करते हुए भी कृति कर्म से होनेवाली निर्जरा को प्राप्त नहीं होता है ।। ६१० ॥ आचारवृत्ति- इन बत्तीस दोषों में से किसी एक भी दोष को करते हुए यदि साधु क्रियाकर्म - वन्दना करता है तो कृति कर्म को करते हुए भी उस कृति कर्म के द्वारा होनेवाली निर्जरा का स्वामी नहीं हो सकता है । अथवा इन वत्तीस दोषों में से किसी एक दोष के द्वारा स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग आदि क्रियारूप वन्दना की विराधना कर देता है । १ क 'दोषं विराधयन् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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