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षडावश्वकाधिकारः]
[४४६ जानुमध्ययोर्वा शिरः कृत्वा संकुचितो भूत्वा यो वन्दनां करोति तस्य संकुचितदोषः ।।६७७।।
दिद्दष्टं आचार्यादिभिर्दष्टः सन् सम्यग्विधानेन वन्दनादिकं करोत्यन्यथा स्वेच्छयाऽथवा दिगवलोकनं कुर्वन् वन्दनादिकं यदि विदधाति तदा तस्य दृष्टो दोषः । अदिट्ट अदृष्टं आचार्यादीनां दर्शनं पृथक त्यक्त्वा भूप्रदेशं शरीरं चाप्रतिलेख्यातद्गतमनाः पृष्ठदेशतो वा भूत्वा यो वन्दना दिकं करोति तस्यादृष्टदोषः, अपि च संघस्स करमोयणं संघस्य करमोचनं संघस्य मायाकरो वृष्टिातव्योऽन्यथा न ममोपरि संघः शोभन: स्यादिति ज्ञात्वा यो वन्दनादिकं करोति तस्य संघकरमोचनदोषः । आलद्धमणालद्धं उपकरणादिकं लब्ध्वा यो वन्दनां करोति तस्य लब्धदोषः। अणालद्ध-अनालब्धं उपकरणादिकं लप्स्येऽहमिति बुद्धया यः करोति बन्दनादिकं तस्यानालब्धदोषः । होणं हीनं ग्रंथार्थकाल प्रमाणरहितां वन्दनां यः करोति तस्य हीनदोषः । उत्तरचूलियं उत्तरचूलिकां वन्दनां स्तोकेन निर्वर्त्य वन्दनायाश्चूलिकाभूतस्यालोचनादिकस्य महता कालेन निर्वर्तक कृत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्योत्तरचूलिकादोषः ॥६०८॥
२४. अदृष्ट-आचार्य आदिकों को पृथक्-पृथक् न देखकर भूमिप्रदेश और शरीर का पिच्छी से परिमार्जन न करके, वन्दना की क्रिया और पाठ में उपयोग न लगाते हुए अथवा गुरु आदि के पृष्ठ देश में उनके पीठ पीछे होकर जो वन्दना आदि करता है उसके अदृष्ट दोष होता है।
२५. संघकरमोचन-संघ को मायाकर-वष्टि अर्थात कर भाग देना चाहिए अन्यथा मेरे प्रति संघ शभ नहीं रहेगा अर्थात मुझसे संघ रुष्ट हो जावेगा ऐसा समझ कर जो वन्दना आदि करता है उसके संघकर-मोचन दोष होता है।
२६. प्रालब्ध-उपकरण आदि प्राप्त करके जो वन्दना करता है उसके लब्ध दोष होता है।
२७. अनालब्ध–'उपकरणादि मुझे मिलें' ऐसी बुद्धि से यदि वन्दना आदि करता है तो उसके अनालब्ध दोष होता है।
२८. हीन-ग्रन्थ, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित जो वन्दना करता है उसके हीन दोष होता है । अर्थात् वन्दना सम्बन्धी पाठ के शब्द जितने हैं उतने पढ़ना चाहिए, उनका अर्थ ठीक समझते रहना चाहिए और जितने काल में उनको पढ़ना है उतने काल में ही पढ़ना चाहिए । इससे अतिरिक्त जो इन प्रमाणों को कम कर देता है, जल्दी-जल्दी पाठ पढ़ लेता है इत्यादि उसके हीन दोष होता है।
२६. उत्तरचलिका-वन्दना का पाठ थोड़े ही काल में पढ़कर वन्दना की चूलिका भूत आलोचना आदि को बहुत काल तक पढ़ते हुए जो वन्दना करता है उसके उत्तरचूलिका दोष होता है । अर्थात् 'जयतु भगवान् हेमाम्भोज' इत्यादि भवितपाठ जल्दी पढ़कर 'इच्छागि भंते!चेइय भक्ति' इत्यादि चूलिका रूप आलोचनादि पाठ को बहुत मंदगति से पढ़ना आदि उत्त च्लिका दोष है।
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