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[मूलाचारे भक्तो भवत्येवमभिप्रायेण यो वंदनां विदधाति तस्य ऋद्धिगौरवदोषः । गारवं गौरवं आत्मनो माहात्म्यासनादिभिराविःकृत्य रससुखहेतोर्वा यो वंदनां करोति तस्य गौरववंदनादोषः ॥६०८॥ तथा
तेणिदं स्तेनितं चौरबुद्धया यथा गुर्वादयो न जानति वन्दनादिकमपवरकाभ्यन्तरं प्रविश्य वा परेषां वंदनां चोरयित्वा यः करोति वंदनादिक' तस्य स्तेनितदोषः, पडिणिदं प्रतिनीतं देवगुर्वादीनां प्रतिकूलो भूत्वा यो वंदनां विदधाति तस्य प्रतिनीतदोषः, पदुटठं प्रदुष्टोऽन्यैः सह प्रद्वेषं वैरं कलहादिकं विधाय क्षंतव्यमकृत्वा यः करोति क्रियाकलापं तस्य प्रदुष्टदोषः । तज्जिदं तजितं तथा अन्यांस्तर्जयन्नन्येषां भयमुत्पादयन्यदि वन्दनां करोति तदा तजितदोषस्तस्याथवाऽचार्यादिभिरंगुल्यादिना तजितः शासितो यदि 'नियमादिकं न करोषि निर्वासयामो भवन्त" मिति तजितो यः करोति तस्य तजितदोषः । सहच शब्दं ब्रवाणो यो वन्दनादिकं करोति मौनं परित्यज्य तस्य शब्ददोषोऽयवा सढें चेति पाठस्तत एवं ग्राह्य शाठ्य न मायाप्रपंचेन यो वन्दनां करोति तस्य शाठ्यदोषः । होलिदं हीलितं वचनेनाचार्यादीनां परिभवं कृत्वा यः करोति वन्दनां तस्य हीलितदोषः, तह तिबलिदं तथा त्रिविलिते शरीरस्य त्रिषु कटिहृदयग्रीवाप्रदेशेषु भंग कृत्वा ललाटदेशे वा त्रिवलि कृत्वा यो विदधाति बन्दनां तस्य त्रिवलितदोषः, कुंचिदं कुचितं कुंचितहस्ताभ्यां शिरः परामर्श कुर्वन् यो वन्दनां विदधाति
१८. तर्जित-अन्यों की तर्जना करते हुए अर्थात् अन्य साधुओं को भय उत्पन्न करते हुए यदि वन्दना करता है । अथवा आचार्य आदि के द्वारा अंगुली आदि से तजित-शासितदंडित होता हुआ यदि वन्दना करता है अर्थात् 'यदि तुम नियम आदि क्रियाएं नहीं करोगे तो हम तुम्हें संघ से निकाल देंगे।' ऐसी आचार्यों की फटकार सुनकर जो वन्दना करता है उसके तर्जित दोष होता है।
१६. शब्द--मौन को छोड़कर शब्द बोलते हुए जो वन्दना आदि करता है उसके शब्द दोष होता है । अथवा सलैंच' ऐसा पाठ भेद होने से उसका ऐसा अर्थ करना कि शटता से, माया प्रपंच से जो वन्दना करता है उसके शाठ्य दोष होता है।
२०. हीलित-वचन से आचार्य आदिकों का तिरस्कार करके जो वन्दना करता है उसके हीलित दोष होता है।
२१. त्रिवलित-शरीर के कटि, हृदय और ग्रीवा इन तीन स्थानों में भंग डालकर अर्थात् कमर, हृदय और गरदन को मोड़कर वन्दना करना या ललाट में त्रिवली-तीन सिकुड़न डालकर वन्दना करना सो त्रिवलित दोष है।
२२. कुंचित-संकुचित किए हाथों से शिर का स्पर्श करते हुए जो वन्दना करता है या घुटनों के मध्य शिर को रखकर संकुचित होकर जो वन्दना करता है उसके संकुचित दोष होता है।
२३. दृष्ट-आचार्यादि यदि देख रहे हैं तो सम्यक् विधान से वन्दना आदि करता है अन्यथा स्वेच्छानुसार करता है अथवा दिशाओं का अवलोकन करते हुए यदि वन्दना करता है तो उसके दृष्ट दोष होता है। १ क 'दि क्रिया त।
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