Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 504
________________ ४४६] [मूलाधारे तेणिदं पडिणिदं चावि पदुळं तज्जिदंतधा। सदं च हीलिदं चावि तह तिवलिद कुंचिदं ।।६०७।। दिट्ठमदि8 चावि य संघस्स करमोयणं । पालद्धमणालद्धं च होणमुत्तरचूलियं ॥६०८॥ मूगं च ददुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं। बत्तीसदोसविसुद्ध किदियम्मं पउंजदे ॥६०६॥ अणाठिदमनादृतं विनादरेण संश्रममंतरेण यत् क्रियाकर्म क्रियते तदनादृतमित्युच्यते अनादृतनामा' 'दोषः । थट्टच स्तब्धश्च विद्यादिगणोद्धतः सन् यः करोति क्रियाकर्म तस्य स्तब्धनामा दोषः पविट्ट प्रविष्टः पंचपरमेष्ठिनामत्यासन्नो भूत्वा यः करोति कृतिकर्म तस्य प्रविष्टदोषः, परिपीडिदं परिपीडितं करजानुप्रदेशः परिपीडय संस्पर्य यः करोति वंदनां तस्य परिपीडितदोषः, दोलायिद-दोलायितं दोलामिवात्मानं चलाचलं तजित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन, आलब्ध, अनालन्ध, हीन, उत्तर चूलिका, मूक, दर्दुर और चुलुलित इस प्रकार साधु इन बत्तीस दोषों से विशुद्ध कृतिकर्म का प्रयोग करते हैं ॥६०५-६०६।। प्राचारवृत्ति-वन्दना के समय जो कृतिकर्म प्रयोग होता है उसके अर्थात् वन्दना के बत्तीस दोष होते हैं, उन्हीं का क्रम से स्पष्टीकरण करते हैं १. अनादृत-बिना आदर के या बिना उत्साह के जो क्रियाकर्म किया जाता है वह अनादृत कहलाता है । यह अनादृता नाम का पहला दोष है . २. स्तब्ध-विद्या आदि के गर्व से उद्धत-उदंड होकर जो क्रियाकर्म किया जाता है वह स्तब्ध दोष है। ५. प्रविष्ट-पंचपरमेष्ठी के. अति निकट होकर जो कृतिकर्म किया जाता है वह प्रविष्ट दोष है। 3. परिपीड़ित-हाथ से घुटनों को पीडित-स्पर्श करके जो वन्दना करता है उसके परिपीड़ित दोष होता है। ५. दोलायित-झूला के समान अपने को चलाचल करके अथवा सो कर (या नींद से झूमते हुए) जो वन्दना करता है उसके दोलायित दोष होता है। ६. अंकुशित-अंकुश के समान हाथ के अंगूठे को ललाट पर रखकर जो वन्दना करता है उसके अंकुशित दोष होता है। ... ७. कच्छपरिंगित-कछुए के समान चेष्टा करके कटिभाग से सरककर जो वन्दना करता है उसके कच्छपरिंगित दोष होता है। १.तहा। २ क दं-तु कुं। ३ क नाम दोषरूपं । ४ क स्तब्धो नाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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