Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 503
________________ डावश्यकाधिकारः ] [ ४४५ परिणामविमुक्तं, अथवाऽवनतिद्वयद्वादशावर्त्तचतुः शिरः क्रियाभिः शुद्ध । मदरहितं जात्यादिमदहीनं । द्विविधस्थानं द्वे पर्यंककायोत्सर्गो स्थाने यस्य तत् द्विविधं स्थानं । पुनरुवतं क्रियां क्रियां प्रति, तदेव क्रियत इति पुनरुक्तं, विनयेन विनययुक्त्या क्रमविशुद्ध' क्रममनतिलंध्यागमानुसारेण कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यं । न पुनरुक्तो दोषो द्रव्याथिक पर्यायार्थिकशिष्यसंग्रहणादिति ॥ ६०४ ॥ कति दोषविप्रमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यमिति यत्पृष्टं तदर्थमाह प्रणाठिदं च थट्टे च पविट्ठे परिपीडिदं । दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छभरंगियं ।। ६०५ ॥ मच्छुवत्त मोट्ठे वेदिप्रावद्धमेव य । भयसा चैव भयत्तं इढिगारव गारवं ॥ ६०६॥ for दण्डक, कायोत्सर्ग और थोस्मामिस्तव इन भेदों से तीन प्रकार होते हैं । अर्थात् यहाँ त्रिविध शब्द से पांच तरह से तीन प्रकार को लिया है जो कि सभी ग्राह्य हैं किन्तु फिर भी यहाँ कृतिकर्म में द्वितीय प्रकार और पाँचवाँ प्रकार ही मुख्य त्रिकरणशुद्ध - मनवचनकाय के अशुभ परिणाम से रहित अथवा दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिर इन क्रियाओं से शुद्ध । मदरहित -- जाति, कुल आदि आठ मदों से रहित । द्विविधस्थान- पर्यंक आसन और खड़े होकर कायोत्सर्ग आसनं ये दो प्रकार के स्थान कृतिकर्म में होते हैं । पुनरुक्त - क्रिया-क्रिया के प्रति अर्थात् प्रत्येक क्रियाओं के प्रति वही विधि की जाती है यह पुनरुक्त होता है । यहाँ यह दोष नहीं है । प्रत्युत करना ही चाहिए । इस तरह से त्रिविध, त्रिकरणशुद्ध, मदरहित, द्विविधस्थान युक्त और पुनरुक्त इतने विशेषणों से युक्त विनय से युक्त होकर, क्रम का उल्लंघन न करके, आगम के अनुसार कृतिकर्म करना चाहिए । पूर्वगाथा में यद्यपि कृतिकर्म का लक्षण बता दिया था फिर भी इस गाथा में विशेष रूप से कहा गया है अतः पुनरुक्त दोष नहीं है। क्योंकि द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक शिष्यों के संग्रह के लिए ऐसा कहा गया है । अर्थात् संक्षेप से समझने की बुद्धि वाले शिष्य पहली गाथा से स्पष्ट समझ लेंगे, किंतु विस्तार से समझने की बुद्धि वाले शिष्यों के लिए दोनों गाथाओं के द्वारा समझना सरल होगा ऐसा जानना । कितने दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए ? ऐसा जो प्रश्न हुआ था अब उसका समाधान करते हैं— गाथार्थ - अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्यत्त्व, ऋद्धिगौरव, गौरव, स्तेनित प्रतिनिीत, प्रदुष्ट, १ सुद्धा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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