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पडावश्यकाधिकारः
[४४१ स्मिन्स्थाने" यदेतत्सूत्र स्थापितं तद्व्याख्यातमिदानी कतिवारं कृतिकर्म कर्तव्यमिति यत्सूत्रं स्थापितं तद्व्याख्यानायाह
चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए
बुध्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होति ।।६०२॥
सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुर्विंशतितीर्थक रस्तवपर्यन्त: 'कृतिकर्मेत्युच्यते। प्रतिक्रमणकाले चत्वारि क्रियाकर्माणि स्वाध्यायकाले च त्रीणि क्रियाकर्माणि भवत्येवं पूर्वाह्न क्रियाकर्माणि सप्त तथाऽपराई च क्रियाकर्माणि सप्तवं पूर्वाह्न ऽपराले च क्रियाकर्माणि चतुर्दश भवतीति । कथं प्रतिक्रमणे चत्वारि क्रिया. कर्माणि, आलोचनाभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एक क्रियाकर्म तथा प्रतिक्रमणभक्तिकरणे कायोत्सर्गः द्वितीयं क्रियाकर्म तया वीरभक्तिकरणे 'कायोत्सर्गस्तृतीयं क्रियाकर्म तथा चतुर्विंशतितीर्थकरभक्तिकरणे शांतिहेतोः कायोत्सर्गश्चतुर्थ क्रियाकर्म । कथं च स्वाध्याये त्रीणि क्रियाकर्माणि, श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एक क्रियाकर्म तथाऽचार्यभक्तिक्रियाकरणे द्वितीयं क्रियाकर्म तथा स्वाध्यायोपसंहारे श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्गस्तृतीयं क्रियाकमवं जातिमपेक्ष्य त्रीणि क्रियाकर्माणि भवंति स्वाध्याये शेषाणां वंदनादिक्रियाकर्मणामत्रवान्तर्भावो द्रष्टव्यः ।
_ 'अब कितनी बार कृतिकर्म करना चाहिए' जो यह प्रश्न हआ था उसका व्याख्यान करते हैं
गाथार्थ-प्रतिक्रमण में चार कृतिकम, स्वाध्याय में तोन ये पूर्वाह्न और अपराह्न से सम्बन्धित ऐसे चौदह कृतिकर्म होते हैं ।।६०२॥
आचारवत्ति-सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सग करके चविंशति तीर्थकर स्तव. पर्यंत जो क्रिया है उसे 'कृतिकर्म' कहते हैं। प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म और स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म इस तरह पूर्वाह्न सम्बन्धी क्रियाकर्म सात होते हैं तथा अपराह्न सम्बन्धी क्रियाकर्म भी सात होते हैं । ऐसे चौदह क्रियाकर्म होते हैं।
प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म कैसे होते हैं ? - . आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति) करने में कायोत्सर्ग होता है वह एक क्रियाकर्म हुआ। प्रतिक्रमण भक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है वह दूसरा क्रियाकर्म हुआ। वीर भक्ति के करने में जो कायोत्सर्ग है वह तृतीय क्रियाकर्म हुआ तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के करने में शान्ति के लिए जो कायोत्सर्ग है वह चतुर्थ क्रियाकर्म है। इस तरह प्रतिक्रमण में चार क्रियाकर्म हुए।
डाध्याय में तीन कृतिकर्म कैसे हैं ?
स्वाध्याय के प्रारम्भ में श्रुतभक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है वह एक कृतिकर्म है तथा आचार्य भक्ति की क्रिया करने में जो कायोत्सर्ग है वह दूसरा कृतिकर्म है। तथा स्वाध्याय की समाप्ति में श्रुतभक्ति करने में जो कायोत्सर्ग है वह तीसरा कृतिकर्म है। इस तरह जाति की अपेक्षा तीन क्रियाकर्म स्वाध्याय में होते हैं। शेष वन्दना आदि क्रियाओं का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है । प्रधान पद का ग्रहण किया है जिससे पर्वाह्न कहने से दिवस का और १क क्रियाकर्मे । २ क तथा महावीर।
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