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पावश्यकाधिकार:]
[४३६ दसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकालमुवजुत्ता।
एदे खु वंदणिज्जा जे गुणवादी गुणधराणं ॥५६॥
दर्शनज्ञानचारित्रतपोविनयेषु नित्यकालमभीक्ष्णमुपयुक्ताः सुष्ठ निरता ये ते एते वंदनीया गुणधराणां शीलधराणां च गुणवादिनो ये च ते वंदनीया इति ।।५६८।।
संयतमप्येवं स्थितमेतेषु स्थानेषु च न वंदेतेत्याह--
वाखित्तपराहुत्तं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो ।
पाहारं च करतो णीहारं वा जदि करेदि ॥५६६॥*
व्याक्षिप्तं 'ध्यानादिनाकुलचित्तं परावृत्तं पराङ्मुखं पृष्ठदेशतः स्थितं प्रमतं निद्राविकथादिरतं मा कदाचिद् बंदिज्ज नो वंदेत संयतमिति संबंधस्तथाऽहारं च कुर्वन्तं भोजनक्रियां कुर्वाणं नीहारं वा मूत्रपुरीषादिक यदि करोति तदाऽपि नो कुर्वीत वंदनां साधुरिति ॥५६६।।
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गाथार्थ-जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनके विनयों में हमेशा लगे रहते हैं, जो गुणधारी मुनियों के गुणों का बखान करते हैं वास्तव में वे मुनि वन्दनीय हैं ॥५९८॥
प्राचारवृत्ति-गाथा सरल है।
संयत भी यदि इस तरह स्थित हैं तो उन स्थानों में उनकी भी वन्दना न करे, सो ही बताते हैं
गाथार्थ-जो व्याकुलचित्त हैं, पीठ फेर कर बैठे हुए हैं, या प्रमाद सहित हैं उनकी भी कभी उस समय वन्दना न करे और यदि आहार कर रहे हैं अथवा नीहार कर रहे हैं उस समय भी वन्दना न करे॥५६६।।
प्राचारवृत्ति-व्याक्षिप्त-ध्यान आदि से आकुलचित्त हैं, पीठ फेर कर बैठे हुए हैं, प्रमत्त-निद्रा या विकथा आदि में लगे हुए हैं, आहार कर रहे हैं या मल-मूत्रादि विसर्जन कर रहे हैं। संयमी मुनि भी यदि इस प्रकार की स्थिति में हैं तो साधु उस समय उनकी भी वन्दना न करे। १८ व्याख्यानदिना व्याकु । ये गाथाएँ फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक हैं
वसदिविहारे काइयसण्णा भिक्खाविहारभूमीदो।
चेदिय पुरगामादो गुरुम्हि एदे समुळंति ॥
अर्थ-वसतिका में अथवा आश्रम में शरीर शुद्धि करके, विहार भूमि से-आश्रम से निकलकर, चैत्यवन्दना कर, और आहार लेकर गुरु के वापस आने पर शिष्य आदर से खड़े होते हैं।
असमाणेहि गुरुम्हि य वसभचउक्के विएस चेव वदी।
तेसु य असमाणेसु य पुज्जो सव्वचेटो सो॥
अर्थ---गुरु-आचार्य के अभाव में उपाध्याय, प्रवर्तक, म्थविर और गणधर ऐसे श्रेष्ठ मुनि का विनय यह व्रती-शिष्य मुनि करे। और यदि उपाध्याय आदि भी न हों तो संघ में जिनकी हितकर प्रवृत्ति है अर्थात् जो दीक्षा गुण आदि में बड़े हैं उनकी विनय-वन्दना करे ।
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