Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 495
________________ पावश्यकाधिकारः] करणालसः सासांरिकसुखमानसः, मृगस्येव पशोरिव चरित्रमाचरणं यस्यासौ मृगचरित्रः परित्यक्ताचार्योपदेशः स्वच्छन्दगतिरेकाकी जिनसूत्रदूषणस्तपःसूत्राद्यविनीतो धृतिरहितश्चेत्येते पंच पार्श्वस्था दर्शनज्ञानचारित्रेषु अनियुक्ताश्चारित्राद्यनुष्ठान [द्यननुष्ठान] परा मंदसंवेगास्तीर्थधर्माद्यकृतहर्षाः सर्वदा न वंदनीया इति ॥५६॥ पुनरपि स्पष्टमवन्दनायाः कारणमाह वंसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणं ॥५६६॥ आसक्त है वे 'संसक्त' कहलाते हैं। ये मुनि आहार आदि की लंपटता से वैद्य-चिकित्सा, मन्त्र, ज्योतिष आदि में कुशलता धारण करते हैं और राजा आदि की सेवा में तत्पर रहते हैं। जिनकी संज्ञा-सम्यग्ज्ञान आदि गुण अपगत-नष्ट हो चुके हैं वे 'अपसंज्ञक' कहलाते हैं । ये चारित्र आदि से हीन हैं, जिनेन्द्रदेव के वचनों को नहीं जानते हुए चारित्र आदि से परिभ्रष्ट हैं, तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी हैं एवं जिनका मन सांसारिक सुखों में लगा हुआ है वे अपसंज्ञक इस सार्थक नामवाले हैं। मृग के समान अर्थात् पशु के समान जिनका चारित्र है वे 'मगचरित्र' कहलाते हैं । ये आचार्यों का उपदेश नहीं मानते हैं, स्वच्छन्दचारी हैं, एकाकी विचरण करते हैं, जिनसूत्र-जिनागम में दूषण लगाते हैं, तप और श्रुत की विनय नहीं करते हैं, धैर्य रहित होते हैं, अतः 'मृगचरित्र'--स्वैराचारी होते हैं। ये पाँचों प्रकार के मुनि 'पार्श्वस्थ' नाम से भी कहे जाते हैं। ये दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि के अनुष्ठान से शून्य रहते हैं, इन्हें तीर्थ और धर्म आदि में हर्ष रूप संवेग भाव नहीं होता है अतः ये हमेशा ही वन्दना करने योग्य नहीं हैं ऐसा समझना। पुनरपि इनको वन्दना न करने का स्पष्ट कारण कहते हैं गाथार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की विनय से ये नित्य ही पार्श्वस्थ हैं । ये गुण ये गाथायें फलटन से प्रकाशित कृति में अधिक हैं--- पांचों पार्श्वस्थ आदि का लक्षण गाथा द्वारा कहा गया है वसहीसु य पडिवतो अहवा उवयरणकारओ भणिओ। पासरथो समणाणं पासत्यो णाम सो होई ॥ अर्थ-जो वसतिओं में आसक्त हैं, जो उपकरणों को बनाता रहता है, जो मुनियों के मार्ग का दूर से आश्रय करता है उसको पार्श्वस्थ कहते हैं। कोहादिकलुसिदप्पा वयगुणसोलेहि चावि परिहीणो। संघस्स अयसकारी कुसीलसमणो त्ति णायव्वो ॥ अर्थ-जिसने क्रोधादिकों से अपने को कलुषित कर रखा है, प्रतगुण और शीलों से हीन है, संघ का अपयश करने वाला है वह कुशील श्रमण है ऐसा जानना। बेज्जेण व मंतेण व जोइसकुसलसणेण पडिबद्धो। राजादी सेबंतो संसत्तो णाम सो होई।। अर्थ-वैद्यशास्त्र, मंत्रशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र में कुशल होने से उनमें आसक्ति रखते हैं अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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