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लाचार दर्शनज्ञानचारित्रतपोविनयेभ्यो नित्यकालं पार्श्वस्था दूरीभूता यतोऽत एते न वदनीयाश्प्रेिषिणः सर्वकालं गुणधराणां च छिद्रान्वेषिणः संयतजनस्य दोषोद्भाविनो यतोऽतो न वंदनीया एतेज्ये वेति १५६६॥
के तहि वंद्यतेऽत आह
समणं वंदिज्ज मेधावी संजदं सुसमाहिदं । ---- पंचमहन्ववकलिवं असंजमदुगंछयं धीरं ॥५६७॥
हे मेधाविन् ! चारित्राद्यनुष्ठानतत्पर ! श्रमणं निर्ग्रन्थरूपं वंदेत पूजयेत् किविशिष्टं संयतं चारित्राद्यनुष्ठानतन्निष्ठ। पुनरपि किविशिष्टं ? सुसमाहितं ध्यानाध्ययनतत्परं क्षमादिसहितं पंचमहाव्रतकलितं असंयमजुगुप्सकं प्राणेन्द्रियसंयमपरं धीरं धैर्योपेतं चागमप्रभावनाशीलं सर्वगुणोपेतमेवं विशिष्ट स्तृयादिति ॥१७॥
तथा
धारियों के छिद्र देखनेवाले हैं अतः ये वन्दनीय नहीं हैं ।।५६६॥
प्राचारवृत्ति-दर्शन ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों की विनय से ये नित्यकाल दूर रहते हैं अतः ये वन्दनीय नहीं हैं। क्योंकि ये गुणों से युक्त संयमियों का दोष उद्भावन करते रहते हैं इसलिए इन पार्श्वस्थ आदि मुनियों की वन्दना नहीं करनी चाहिए।
तो कौन वन्दनीय हैं ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ हे बुद्धिमन् ! पाँच महाव्रतों से सहित, असंयम से रहित, धीर, एकाग्रचित्तवाले संयत ऐसे मुनि की वन्दना करो ॥५६७॥
प्राचारवृत्ति-हे चारित्रादि अनुष्ठान में तत्पर विद्वन् मुने ! तुम ऐसे नियरूप श्रमण की वन्दना करो जो चारित्रादि के अनुष्ठान में निष्ठ हैं, ध्यान अध्ययन में तत्पर रहते हैं, क्षमादि गुणों से सहित हैं, पाँच महाव्रतों से युक्त हैं, असंयम के जुगुप्सक-प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम में परायण हैं, धैर्यगुण से सहित हैं, आगम की प्रभावना करने के स्वभावी हैं इन सर्वगुणों से सहित मुनियों की वन्दना व स्तुति करो।
उसी प्रकार से और भी बताते हैंहमेशा इन्हीं के प्रयोग में लगे रहते है, एवं राजा आदिकों की सेवा करते हैं उनको संसक्त मुनि कहते हैं।
जिणवयणमयाणंतो मुक्कधुरो णाणचरणपरिभट्टो।
करणालसो भविसा सेवदि ओसण्णसेवाओ ॥
अर्थ-जो जिन वचनों को नहीं जानते हुए चारित्ररूपी धुरा को छोड़ चुके हैं, ज्ञान और माचरण से भ्रष्ट हैं, तेरह विध क्रियाओं में आलसी हैं, उनको अपसंज्ञक मुनि कहते हैं ।
आयरियकुलं मुच्छा विहरइ एगागिणो य जो समणो।
जिणवयणं णिवंतो सच्छंदो होइ मिगचारी ॥
अर्थ--आचार्य के संघ को छोड़कर जो एकाकी विहार करते हैं, जिनधननों की निन्दा करते हैं, स्वच्छन्द प्रवृत्ति रखते हैं, वे मृगवारी मुनि कहलाते हैं।
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