________________
पडावश्यकाधिकारः]
[४१३
परिणामोऽन्यथाभावो विद्यते येषां ते परिणामिनः । के ते जीवपुद्गलाः। शेषाणि धर्माधर्मकालाकाशान्यपरिणामीनि कुतो द्रव्याथिकनयापेक्षया व्यञ्जनपर्यायं चाश्रित्यैतदुक्तं। पर्यायाथिकनयापेक्षयान्वर्थपर्यायमाश्रित्य सर्वेऽपि परिणामापरिणामात्मका यत इति । जीवो जीवद्रव्यं चेतनालक्षणो यतः। अजीवाः पुनः सर्वे पुद्गलादयो ज्ञातृत्वदृष्टुत्वाद्यमावादिति । मूर्त पुद्गलद्रव्यं रूपादिमत्वात् । शेषाणि जीवधर्माधर्मकालाकाशान्यमूर्तानि रूपादिविरहितत्वात् । सप्रदेशानि सांशानि जीवधर्माधर्मपुद्गलाकाशानि' प्रदेशबन्धदर्शनात् । अप्रदेशाः' कालाणवः परमाणुश्च प्रचयाभावाद् बन्धाभावाच्च । धर्माधर्माकाशान्येकरूपाणि सर्वदा प्रदेशविघाताभावात्। शेषाः संसारिजीवपुद्गलकाला अनेकरूपाः प्रदेशानां भेददर्शनात् । आकाशं क्षेत्रं सर्वपदार्थानामाधा रत्वात् ।
और सर्वगत तथा इनसे विपरीत अपरिणामी आदि के द्वारा द्रव्य लोक को जानना चाहिए ॥५४७॥
___ आचारवृत्ति-परिणाम अर्थात् अन्य प्रकार से होना जिनमें पाया जाये वे द्रव्य परिणामी कहलाते हैं । वे जीव और पुद्गल हैं। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य अपरिणामी हैं । द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से व्यंजनपर्याय का आश्रय लेकर यह कथन किया गया है। तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अन्वर्थपर्याय का आश्रय लेकर सभी द्रव्य परिणामापरिणामात्मक हैं अर्थात् सभी द्रव्य कथंचित् परिणामी हैं, कथंचित् अपरिणामी हैं। जीव द्रव्य चेतना लक्षणवाला है, बाकी पुद्गल आदि सभी अजीव द्रव्य हैं, क्योंकि इनमें ज्ञातृत्व दृष्ट्टत्व आदि का अभाव है । पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, क्योंकि वह रूपादिमान् है। शेष जीव, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं, क्योंकि ये रूपादि से रहित हैं। जीव, धर्म, अधर्म, पुद्गल और आकाश सप्रदेशी हैं अर्थात् ये अंश सहित हैं; क्योंकि इनमें प्रदेशबन्ध देखा जाता है । कालाणु और परमाणु अप्रदेशी हैं क्योंकि इनमें प्रचय का अभाव है और बन्ध का भी अभाव है। धर्म, अधर्म और आकाश ये एक रूप हैं अर्थात् अखण्ड हैं, क्योंकि हमेशा इनके प्रदेश के विघात का अभाव है। शेष संसारी जीव, पुद्गल और काल ये अनेकरूप हैं, चूंकि इनके प्रदेशों में भेद देखा जाता है । अर्थात् ये अनेक हैं इनके प्रदेश पृथक्-पृथक् हैं।
आकाश क्षेत्र है क्योंकि वह सर्व पदार्थों के लिए आधारभूत है। शेष जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल अक्षेत्र हैं क्योंकि इनमें अवगाहन लक्षण का अभाव है। जीव और पुद्गल क्रियावान् हैं क्योंकि इनकी गति देखी जाती है। शेष धर्म, · ! अधर्म, आकाश और काल
१ क 'नि सप्र। निम्नलिखित गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है
परियट्टणदो ठिदि अविसेसेण विसेसिदं दव्वं ।
कालोति तं हि भणिदं तेहि असंखेज्जकालाणु ।। अर्थात प्रत्येक घट पट आदिकों में नया, पुराना इत्यादि परिवर्तन देखने से काल नामक पदार्थ का अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रत्येक पदार्थ कुछ स्थिति को धारण करता है। पदार्थ की यह स्थिति काल के बिना नहीं हो सकती है अतः यह काल नामक पदार्थ द्रव्य है ऐसा जिनेश्वर ने कहा है और यह काल द्रव्य असंख्यात है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org