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परावस्यकाधिकारः] यस्मात्तस्माल्लोकः । अथवा केवलज्ञानेन जिनैः कृत्स्नं यथा भवतीति तथा संलोक्यते सर्वद्रव्यपर्यायः सम्यगुपलभ्यते यस्मात्तस्माल्लोकः । तेन कारणेन लोकः स इत्युच्यत इति ॥५४२॥
नवप्रकारैनिक्षेपर्लोकस्वरूपमाह
णाम दवणं दव्वं खेत्तं चिण्हं कसायलोग्रो य। .
भवलोगो भावलोगो पज्जयलोगो य णादव्वो ॥५४३॥
नात्र विभक्तिनिर्देशस्य प्राधान्यं प्राकृतेऽन्यथापि वृत्तेः । लोकशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । नामलोकः स्थापनालोको द्रव्यलोकः क्षेत्रलोकश्चिह्नलोक: कषायलोको भवलोको भावलोकः पर्यायलोकश्च ज्ञातव्य इति ॥५४३॥ तत्र नामलोकं विवृण्वन्नाह
णामाणि जाणि काणि चि सुहासुहाणि लोगसि ।
णामलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं ॥५४४॥
नामानि संज्ञारूपाणि, यानि कानिचिच्छुभान्यशुभानि च शोभनान्यशोभनानि च सन्ति विद्यते जीवलोकेस्मिन तन्नामलोक मनन्तजिनदर्शितं विजानीहि । न विद्यतेऽन्तो विनाशोऽवसानं वा येषां तेऽनन्तास्ते च ते जिनाश्चानन्तजिनास्तर्दष्टो यतः इति ॥५४६॥
सम्पूर्ण जगत् को जैसा है वैसा ही 'संलोक्यते' संलोकन करते हैं अर्थात् सर्व द्रव्य पर्यायों को सम्यक् प्रकार से उपलब्ध कर लेते हैं-जान लेते हैं इसलिए इसको 'लोक' इस नाम से कहा . गया है।
नव प्रकार के निक्षेपों से लोक का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, चिह्न, कषायलोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोक ये नवलोक जानना चाहिए ॥५४३।।।
प्राचारवृत्ति-यहाँ इस गाथा में लोक के निर्देश की विभक्ति प्रधान नहीं है क्योंकि प्राकृत में अन्यथा भी वृत्ति देखी जाती है। इनमें प्रत्येक के साथ 'लोक' शब्द को लगा लेना चाहिए। जैसे कि नामलोक, स्थापनालोक, द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, चिह्नलोक, कषायलोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोक इन भेदों से लोक की व्याख्या नव प्रकार की हो जाती है।'
उनमें से अब नामलोक का वर्णन करते हैं__गाथार्थ-लोक में जो कोई भी शुभ या अशुभ नाम हैं उनको अन्तरहित जिनेन्द्रदेव ने नामलोक कहा है ऐसा जानो ॥५४४।।
प्राचारवृत्ति-इस जीव लोक में जो कुछ भी शोभन और अशोभन नाम हैं उनको अनन्त जिनेन्द्र ने नामलोक कहा है। जिनका अन्त अर्थात् विनाश या अवसान नहीं है वे अनन्त कहलाते हैं। ऐसे अनन्त विशेषण से विशिष्ट जिनेश्वरों ने देखा है-इस कारण से नामलोक ऐसा कहा है। १. "णिवि । २ क "णि य संति लोगंति।
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