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[मूलाचारे
लोकस्योद्योतकरा द्रव्योद्योतेन नैव भवन्ति जिनाः। भावोद्योतकराः पुनर्भवन्ति जिनवराश्चतूविशतिः । अतो भावोद्योतेनैव लोकस्योद्योतकरा जिना इति स्थितमिति । लोकोद्योतकरा इति व्याख्यातं ।
धर्मतीर्थकरा इति पदं व्याख्यातुकामः प्राह
तिविहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अस्थिकायधम्मो य।
तदिओ चरित्तधम्मो सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं ॥५५६॥
धर्मस्तावत्त्रिप्रकारो भवति । श्रुतधर्मोऽस्तिकायधर्मस्तृतीयश्चारित्रधर्मः । अत्र पुनः ध्रुतधर्मस्ती'र्थान्तरं संसारसागरं तरन्ति येन तत्तीर्थमिति ॥५५६।
तीर्थस्य स्वरूपमाह
दुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दध्वभावसंजुत्तं।
एदेसि दोण्हंपि य पत्तेय परूवणा होदि ॥५६०॥
द्विविधं च भवति तीर्थ द्रव्यसंयुक्तं भावसंयुक्तं चेति । द्रव्यतीर्थमपरमार्थरूपं । भावतीर्थ पुनः परमार्थभूतमन्यापेक्षाभावात् । एतयोर्द्वयोरपि तीर्थयो: प्रत्येक प्ररूपणा भवति ॥५६०॥
द्रव्यतीर्थस्य स्वरूपमाह
प्राचारवृत्ति-चौबीस तीर्थंकर द्रव्य प्रकाश से लोक को प्रकाशित नहीं करते हैं, किन्तु वे ज्ञान के प्रकाश से ही लोक का उद्योत करनेवाले होते हैं यह बात व्यवस्थित हो गई। इस तरह 'लोकोद्योतकरा' इसका व्याख्यान हुआ।
'धर्मतीर्थकरा इस पद का व्याख्यान करते हैं
गाथार्थ-धर्म तीन प्रकार का है-श्रुत धर्म, अस्तिकायधर्म और चारित्रधर्म । किन्तु यहाँ श्रुतधर्म तीर्थ है ॥५५॥
प्राचारवृत्ति-श्रुतधर्म, अस्तिकाय धर्म और चारित्रधर्म इन तीनों में श्रुतधर्म को तीर्थ माना है। जिससे संसारसागर को तिरते हैं वह तीर्थ है सो यह श्रुत अर्थात् जिनदेव कथित आगम ही सच्चा तीर्थ है।
तीर्थ का स्वरूप कहते हैं
• गाथार्थ-द्रव्य और भाव से संयुक्त तीर्थ दो प्रकार का है। इन दोनों में से प्रत्येक की प्ररूपणा करते हैं ।।५६०॥
आचारवत्ति-द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीर्थ के दो भेद हैं। द्रव्यतीर्थ तो अपरमार्थभूत है और भावतीर्थ परमार्थभूत है, क्योंकि इसमें अन्य की अपेक्षा का अभाव है। इन दोनों का वर्णन करते हैं।
द्रव्यतीर्थ का स्वरूप कहते हैं१ क तीर्थ सं। १ क र्थस्व ।
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