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षडावश्यकाधिकारः]
[४२५ भासा असच्चामोसा णवरि हु भत्तीय भासिदा 'एसा ।
ण हु खीण रागदोसा दिति समाहिं च बोहि च ॥५६६॥
असत्यमृषा भाषेयं किंतु भक्त्या भाषितषा यस्मान्नहि क्षीणरागद्वेषा जिना ददते समाधि बोधि च । यदि दाने प्रवर्तेरन् सरागद्वेषाः स्युरिति ॥५६६॥
अन्यच्च
जं तेहिं दु दादव्वं तं दिण्णं जिणवरेहि सव्वेहि।
दंसणणाणचरित्तस्स एस तिविहस्स उवदेसो ॥५७०॥
यत्तैस्तु दातव्यं तद्दत्तमेव जिनवरैः सवै कि ? तद्दर्शनज्ञानचारित्राणां त्रिप्रकाराणां एष उपदेशोऽस्मात्किमधिकं यत्प्रार्थ्यते। इति एषा च समाधिबोधिप्रार्थना भक्तिर्भवति यतः ॥५७०॥
अत आह
भत्तीए जिणवराणं खीयदि जं पुव्वसंचियं कम्मं ।
पायरियपसाएण य विज्जा मंता य सिझंति ॥५७१॥ जिनवराणां भक्त्या पूर्वसंचितं कर्म क्षीयते विनश्यते यस्माद् आचार्याणां च भक्तिः किमर्थं ? आचार्याणां च प्रसादेन विद्या मंत्राश्च सिद्धिमपगच्छंति यस्मादिति तस्माज्जिनानामाचार्याणां च भक्तिरियं न
गाथार्थ- यह असत्यमृषा भाषा है, वास्तव में यह केवल भक्ति से कही गई है क्योंकि राग-द्वेष से रहित भगवान् समाधि और बोधि को नहीं देते हैं ।।५६६।।
आचारवृत्ति-यह बोधि समाधि की प्रार्थना असत्यमृषा भाषा है, यह मात्र भक्ति से ही कही गई है, क्योंकि जिनके राग-द्वेष नष्ट हो चुके हैं वे जिनेन्द्र भगवान् समाधि और बोधि को नहीं देते हैं । यदि वे देने का कार्य करेंगे तो राग-द्वेष सहित हो जावेंगे।
और भी कहते हैं
गाथार्थ-उनके द्वारा जो देने योग्य था, सभी जिनवरों ने वह दे दिया है। सो वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों का उपदेश है ॥५७०।।
प्राचारवृत्ति-उनके द्वारा जो देने योग्य था सो तो उन्होंने दे ही दिया है। वह क्या है ? वह रत्नत्रय का उपदेश है । हम लोगों के लिए और इससे अधिक क्या है कि जिसकी प्रार्थना करें इसलिए यह समाधि और बोधि की प्रार्थना भक्ति है।
है इस भक्ति का माहात्म्य कहते हैं---
। गाथार्थ-जिनवरों को भक्ति से जो पूर्व संचित कर्म हैं वे क्षय हो जाते हैं, और आचार्य के प्रसाद से विद्या तथा मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं ॥५७१।।
प्राचारवृत्ति-जिनेन्द्रदेव की भक्ति से पूर्व संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं सो ठीक है, किन्तु आचार्यों की भक्ति किसलिए है ? आचार्यों के प्रसाद से विद्या और मन्त्रों की सिद्धि होती १ क भासा । २ क 'खीणपेज्जदोसा । ३ क दितु ।
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