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सामायिककरणक्रममाह -
पडिलिहियअंजलिकरो उवजुत्तो उट्ठऊण एयमणो । श्रव्वाखित्तो वृत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू ||५३८॥
प्रतिलेखितावञ्जलिकरौ येनासौ प्रतिलेखिताञ्जलिकरः । उपयुक्तः समाहितमतिः, उत्थाय --- स्थित्वा, एकाग्रमना अव्याक्षिप्तः आगमोक्तक्रमेण करोति सामायिकं भिक्ष: । अथवा प्रतिलेख्य शुद्धो भूत्वा द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धि कृत्वा, प्रकृष्टाञ्जलि' करमुकलितकरः प्रतिलेखनेन सहिताञ्जलिकरो वा सामायिक करोतीति ।। ५३८ ।।
सामायिक निर्युक्तिमुपसंहर्तुं चतुर्विंशतिस्तवं सूचयितुं प्राह
सामाइय णिज्जुती एसा कहिया मए समासेण ।
चवीस णिज्जुत्ती एतो उड्ढं पवक्खामि ॥ ५३६ ॥
सामायिकनिर्युक्तिरेषा कथिता समासेन । इत ऊर्ध्वं चतुर्विंशतिस्तवनिर्युक्ति प्रवक्ष्यामीति ॥५३१॥
'तदवबोधनार्थं 'निक्षेपमाह
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णामवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य ।
एसो व श्रोणिक्खेवो छव्विहो होई ॥५४० ॥
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अब सामायिक करने का क्रम कहते हैं
गाथार्थ - प्रतिलेखन सहित अंजलि जोड़कर, उपयुक्त हुआ, उठकर एकाग्रमन होकर, मन को विक्षेपरहित करके, मुनि सामायिक करता है ।। ५३८ ।।
प्राचारवृत्ति - जिन्होंने पिच्छी को लेकर अंजलि जोड़ ली है, जो सावधान बुद्धिवाले हैं, वे मुनि व्याक्षिप्तचित्त न होकर, खड़े होकर एकाग्रमन होते हुए, आगम में कथित विधि से सामायिक करते हैं । अथवा पिच्छी से प्रतिलेखन करके शुद्ध होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि को करके प्रकृष्ट रूप से अंजलि को मुकुलित / कमलाकार बना कर अथवा प्रतिलेखनपिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर सामायिक करते हैं ।
सामायिक नियुक्ति का उपसंहार कर अब चतुर्विंशति स्तव को सूचित करते हुए कहते हैं
गाथार्थ - मैंने संक्ष ेप में यह सामायिक निर्युक्ति कही है इससे आगे चतुर्विंशति स्तव को कहूँगा ।। ५३६ ।।
श्राचारवृत्ति- - गाथा सरल होने से टीका नहीं है ।
द्वितीय आवश्यक का ज्ञान कराने के लिए कहते हैं
गाथार्थ - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव स्तव में यह छह प्रकार की निक्षेप जानना चाहिए ॥ ५४० ॥
१ क "लिंकने कृत्वांजलिकर: मु० । २ क तदनुवो। ३ क पानाह ।
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