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teraturधकारः ]
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वृत्तमेतत् । सावद्ययोगपरिवर्जनार्थं पापास्रववर्जनाय सामायिकं केवलिभिः प्रशस्तं प्रतिपादितं स्तुतमिति । यस्मात्तस्माद् गृहस्थधर्मः सारम्भा रम्भादिप्रवृत्तिविशेषोऽपरमो जघन्यः संसारहेतुरिति ज्ञात्वा बुधः संयतः प्रशस्तं शोभनमात्महितं सामायिकं कुर्यादिति ॥ ५३२॥
पुनरपि सामायिकमाहात्म्यमाह-
सामाइ
दु कदे समणो इर सावओ हवदि जह्मा । देण कारण दु बहुसो सामाइयं कुज्ज ॥ ५३३॥
सामायिकेतु कृते सति श्रावकोऽपि किल श्रमणः संयतो भवति । यस्मात्कस्मिंश्चित् पर्वणि कश्चित् श्रावकः सामायिकसंयमं समत्वं गृहीत्वा श्मशाने स्थि (तः ) तस्य पुत्रनप्तृबन्ध्वादिमरणपीडादिमहोपसर्गः
श्राचारवृत्ति - यह वृत्त छन्द है । सावद्य योग का त्याग करने के लिए अर्थात् पापास्रव का वर्जन करने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक का प्रतिपादन किया है उसे स्तुत कहा गया है। क्योंकि गृहस्थ धर्म आरम्भ आदि का प्रवृत्ति विशेष रूप होने से जघन्य अर्थात् संसार का हेतु है ऐसा समझकर संयत मुनि प्रशस्त - शोभन आत्महित रूप सामायिक को करे ।
पुनरपि सामायिक के माहात्म्य को कहते हैं
गाथार्थ – सामायिक करते समय जिससे श्रावक भी श्रमण हो जाता है इससे तो बहुत बार सामायिक करना चाहिए ॥ ५३३ ॥
श्राचारवृत्ति-सामायिक के करते समय श्रावक भी आश्चर्य है कि संयत हो जाता है अर्थात् मुनि सदृश हो जाता है । जैसे किसी पर्व में कोई श्रावक सामायिक संयम अर्थात् समता भाव को ग्रहण करके श्मशान में स्थित हो गया है-खड़ा हो गया है, उस समय, ( किसी के द्वारा) उसके पुत्र, पौत्र, नाती बन्धुजन आदि के मरण अथवा उनको पीड़ा देना आदि महाउपसर्ग हो रहे हैं या स्वयं के ऊपर उपसर्ग हो रहे हैं तो भी वह सामायिक व्रत से च्युत नहीं हुआ अर्थात् सामायिक के समय एकाग्रता रूप धर्मध्यान से चलायमान नहीं हुआ उस समय वह श्रमण होता है ।
प्रश्न- यदि वह उस समय भाव श्रमण हो गया तब तो उसे श्रावकपना कैसे रहा
होगा ?
उत्तर- वह भाव - श्रमण नहीं है किन्तु श्रमण के सदृश उसे समझना चाहिए; क्योंकि उस समय उसके प्रत्याख्यान कषाय का उदय मन्दतर है। यहाँ पर (सुदर्शन आदि की ) कथा कहो जा सकती है । इसलिए बहुलता से सामायिक करना चाहिए ।
भावार्थ - कदाचित् किसी श्रावक ने अष्टमी या चतुर्दशी को दिन में या रात्रि में श्मशान भूमि में जाकर निश्चल ध्यान रूप सामायिक शुरू किया, उस समय उसने कुछ घण्टों का नियम कर लिया है और उतने समय तक सभी से समता भाव धारण करके वह राग-द्व ेष रहित होकर स्थित हो गया है । उस समय किसी देव या विद्याधर मनुष्य आदि ने पूर्व जन्म के वैरवश या कृढ़ता की परीक्षा हेतु उस पर उपसर्ग करना चाहा, उसके सामने उसके परिवार को, स्त्री पुत्र
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