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[मूलाचारे समत्वभावपूर्वकं भेदेन सामायिकमाह
जो समो सव्वभूदेसु तसेसु थावरेसु य ।
'तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ॥५२६॥ यः समः सर्वभूतेषु-त्रसेषु स्थावरेषु च समस्तेषामपीडाकरस्तस्य सामायिकमिति ॥५२६।। रागद्वेषविकाराभावभेदेन सामायिकमाह--
- जस्स रागो य दोसो य विडि ण जणेति दु। यस्य रागद्वेषौ विकृति विकारं न जनयतस्तस्य सामायिकमिति
कषायजयेन सामायिकमाह
जेण कोधोय माणोय माया लोभो य णिज्जिदो॥५२७।। येन क्रोधमानमायालोभा: सभेदाः सनोकषाया निजिता दलितास्तस्य सामायिकमिति ॥५२७॥
संज्ञालेश्याविकाराभावभेदेन सामायिकमाह
जस्स सण्णा य लेस्सा य विडि ण जणंति दु ॥५२८।।
समत्वभावपूर्वक भेद के द्वारा सामायिक को कहते हैं
गाथार्थ-सभी प्राणियों में, बसों और स्थावरों में, जो समभावी है उसके सामायिक होता है ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा है ।।५२६।।
जो सर्व प्राणियों में, त्रसों और स्थावरों में समभाव रखते हैं अर्थात् उनको पीड़ा नहीं देते हैं उनके सामायिक होता है।
राग-द्वेष विकारों के अभाव से भेदरूप सामायिक को कहते हैं
गाथार्थ-जिस जीव के राग और द्वेष विकार को उत्पन्न नहीं करते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है ।
कषाय-जय के द्वारा सामायिक को कहते हैं
गाथार्थ-जिन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ को जीत लिया है उनके सामायिक होता है ऐसा जिन शासन में कहा है ॥५२७॥
आचारवृत्ति-जिन्होंने अनन्तानुबन्धी आदि चार भेदों सहित क्रोध, मान, माया, लोभ का तथा हास्य आदि नोकषायों का दलन कर दिया है उन्हीं के सामायिक होता है।
संज्ञा और लेश्यारूप विकारों के अभावपूर्वक भेदरूप सामायिक को कहते है
गाथार्थ-जिनके संज्ञाएँ और लेश्याएँ विकार को उत्पन्न नहीं करतीं उसके सामायिक होता है ऐसा जिन शासन में कहा है। १ अस्याः गाथायाः उत्तरार्धं द्वात्रिंशत्तमगाथापर्यन्तं संयोज्य संयोज्य पठनीयं ।
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