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षडावश्यकाधिकारः]
[३६६ रागद्वेषो निरुध्य सर्वकर्मसु सर्वकर्तव्येषु या समता, सूत्रेषु च द्वादशांगचतुर्दशपूर्वेषु च यः परिणामः प्रद्धानं सामायिकमुत्तमं प्रकृष्टं जानीहि ॥५२३॥
तपःपूर्वकं सामायिकमाह
विरदो सव्वसावज्जं तिगुत्तो पिहिदिदियो।
जीवो सामाइयं णाम संजमट्ठाणमुत्तमं ॥५२४॥
सर्वसावद्याद्यो विरतस्त्रिगुप्तः, पिहितेन्द्रियो निरुद्धरूपादिविषयः, एवंभूतो जीवः सामायिकं संयमस्थानमुत्तमं जानीहि जीवसामायिकसयमयोरभेदादिति ॥५२४॥
भेदं च प्राह
जस्स सण्णिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे ।
तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे॥५२५॥
यस्य संनिहितः स्थित: आत्मा। क्व, संयमे नियमे तपसि च तस्य सामायिक तिष्ठति । इत्येवं केवलिनां शासनं एवं केवलिनामाज्ञा शिक्षा वा। अथवास्मिन् केवलिशासने जिनागमे तस्य सामायिक तिष्ठतीति ॥५२॥
प्राचारवृत्ति-राग द्वेष को दूर करके सभी कार्यों में जो समता है और द्वादशांग तथा चतुर्दश पूर्वरूप सूत्रों का जो श्रद्धान है वही प्रकृष्ट सामायिक है ऐसा तुम जानो।
अब तपपूर्वक सामायिक को कहते हैं
गाथार्थ-सर्व सावद्य से विरत, तीन गुप्ति से गुप्त, जितेन्द्रिय जीव संयमस्थान रूप उत्तम सामायिक नाम को प्राप्त होता है ॥५२४॥
आचारवत्ति-जो मुनि सर्व पापयोग से विरत हैं, तीन गुप्ति से सहित हैं, रूपादि विषयों में इन्द्रियों को न जाने देने से जो जितेन्द्रिय हैं ऐसे संयत जीव को ही संयम के स्थान भूत उत्तम सामायिक रूप समझो। क्योंकि जीव और सामायिक संयम में अभेद है अर्थात् जीव के आश्रय में ही सामायिक संयम पाया जाता है। यहाँ अभेदरूप से सामायिक का प्रतिपादन हुआ है।
अब भेद को कहते हैं
गाथार्थ-जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में स्थित है उसके सामायिक रहता है ऐसा केवली के शासन में कहा है ॥५२५।।
आचारवृत्ति-जिनकी आत्मा संयम आदि में लगी हुई है उसके ही सामायिक होता है, इस प्रकार केवली भगवान् का शासन है अर्थात् केवली भगवान् की आज्ञा है अथवा उनकी शिक्षा है । अथवा केवली भगवान् के इस शासन में अर्थात् जिनागम में उसी जीव के सामायिक होता है ऐसा अभिप्राय समझना।
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