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पिण्डशुद्धि-अधिकारः]
[३३७ इति । अनेन प्रकारेण रन्धन्युदखलदर्वीभाजनगन्धभेदेन पंचविधं । रन्धनी कृत्वैव महानस्यां रन्धन्यामोदनादिक निष्पाद्य साधुभ्यस्तावद्दास्यामि पश्चादन्येभ्य इति प्रासुकमपि द्रव्यं पूतिकर्मणा निष्पन्नमिति पूतीत्युच्यते । तथो. दखलं कृत्वैवमस्मिन्नदुखले चूर्णयित्वा याबदृषिभ्यो न दास्यामि तावदात्मनोऽन्येभ्यश्च न ददामीति निष्पन्न प्रासुकमपि तत् तथाऽनया दा यावद्यतिभ्यो न दास्यामि तावदात्मनोऽन्येषां न तत्द्योग्यमेतदपि प्रति । तथा भाजनमप्येतद्यावदपिभ्यो न ददामि तावदात्मनोऽयेषां च न तद्योग्यमिति पूति। तथायं गन्धो यावदषिभ्यो न दीयते भोजनपूर्वकस्तावदात्मनोऽन्येषां च न कल्पते इत्येवं हेतुना निष्पन्नमोदनादिकं प्रतिकर्म। तत्पंचप्रकार दोषजातं प्रथममारम्भकरणादिनि ।।४२८।।
मिश्रदोषस्वरूपं निरूपयन्नाह
पासंडेहि य सद्धसागारेहि य जदण्णमूट्टिसियं।
दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्स वियाणाहि ॥४२६॥
प्रासकं सिद्धं निप्पन्नमपि यदन्नमोदनादिकं पाषण्डै: साधं सागारैः सह गहस्थश्च सह संयतेभ्यो . दातुमुदिष्टं तं मिश्रदोषं विजानीहि । स्पर्शनादिनानादरादिदोषदर्शनादिति ॥४२६॥
स्थापितदोषस्वरूपमाह
पागादु भायणाओ अण्णह्मि य भायणह्मि पक्खविय । सघरे व परघरे वा णिहिदं ठविदं वियाणाहि ॥४३०॥
लूंगा यह भी पूति है। तथा वर्तनों में भी इस नये वर्तन से जब तक ऋषियों को न दूंगा तब तक अपने या अन्यों के लिए नहीं लूंगा। इसी तरह कोई सुगन्धित वस्तु है उस विषय में भी ऐसा सोचना कि जब तक यह मुगन्ध वस्तु मुनियों को आहार में नहीं दे दूंगा तब तक अपने या अन्य के प्रयोग में नहीं लूंगा । इन पाँच हेतुओं से बने हुए भात आदि भोज्य पदार्थ पूतिकर्म कहलाते हैं। यदि मुनि ऐसे भोजन को ग्रहण कर लेते हैं तो उन्हें पूतिदोष लगता है। क्योंकि इन पाँचों प्रकारों में प्रथम आरम्भ दोष किया जाता है अतः दोष है।
मिश्र दोष का स्वरूप बतलाते हैं
गाथार्थ--पाखण्डियों और गृहस्थों के साथ संयत मुनियों को जो सिद्ध हुआ अन्न दिया जाता है उसे मिश्र जानो ॥४२६।।
आचारवृत्ति-जो ओदन आदि अन्न प्रासुक भी बना हुआ है किन्तु यदि दाता पाखण्डी साधुओं के साथ या गृहस्थों के साथ मुनियों को देता है तो उसे मिश्र दोष जानो। ऐसा इसलिए कि उनके साथ आहार देने से उनका स्पर्श आदि हो जाने से आहार अशुद्ध हो जावेगा तथा संयमी मुनियों को और उनको साथ देने से उनका अनादर भी होगा इत्यादि दोष होने से ही यह दोष माना गया है।
स्थापित दोष का स्वरूप कहते हैं
गाचार्य-पकानेवाले वर्तन से अन्य वर्तन में निकालकर, अपने घर में या अन्य के घर में रखना यह स्थापित दोष हैोमा जानो।।८३०।।
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