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[मुलाचार
भणित: कर्मबध्नाति । शुद्ध पुनर्गवेषयमाणोऽध कर्मविशुद्ध कृतकारितानुमतिरहितं यत्नेन पश्यन्नः कर्मणि सत्यपि शुद्धोऽसौ यद्यप्यधःकर्मणा निष्पन्नोऽसावाहारस्तथापि साधोर्न बधहेतुः कुतादिदोषाभावादिति ॥८॥
सम्वोवि पिंडदोसो दब्वे भावे समासदो दुविहो।
वव्वगदो पुण दव्वे भावगदो प्रप्पपरिणामो॥४८॥
सर्वोऽपि पिण्डदोषो द्रव्यगतो भावगतश्च समासतो द्विपकारः । द्रव्यमुद्गमादिदोषसहितमप्यध:कर्मणा युक्तं द्रव्यगतमित्युच्यते तस्माद्रव्यगत: पुनर्द्रव्यामिति । भावत. पुनरात्मपरिणाम शुद्धमपि द्रव्यं परिणामानामशुद्धधाऽशुद्धमिति तस्माद्भावशुद्धिर्यतीन कार्या। भावशुद्धया सर्व तपश्चरणं ज्ञानदर्शनादिक च व्यवस्थितमिति ॥४८॥
द्रव्यस्य भेदमाह
सम्वेसणंर बिदेसणं च सुद्धासणं च ते कमसो।
एसणसमिविविसुद्ध णिश्वियडमवंजणं जाणे ॥४८६॥
सर्वेषणं चशब्देनासर्वेषणं, विद्वेषणं चशब्देनाविद्वेषण शुद्धाशनं चशब्देनाशुद्धाशन च पाय । एपणासमितिविशुद्ध सर्वेषणमित्युच्यते। तथा विकृतेः पंचरसेभ्यो निष्क्रान्तं निविकृतं गुडौलतभिशाकादि
यदि वे गौरव से उस आहार को अपने लिए किया हुआ मानते हैं तब वे कर्म का बन्ध कर लेते है। पूनः शुद्ध की खोज करते हुए अर्थात् अधःकर्म से रहित और कृत-कारित-अनुमोदना से रहित ऐसा आहार यत्नपूर्वक चाहते हुए साधु कदाचित् अधःकर्म युक्त आहार के ग्रहण करने में भी शुद्ध ही हैं । यद्यपि वह आहार अधःकर्म के द्वारा बनाया हुआ है तो भी साधु के बन्ध का हेतु नहीं है, क्योंकि उसमें उन साधु की कृत-कारित-अनुमोदना आदि नहीं है।
गाथार्य-सभी पिंड दोष द्रव्य और भाव से संक्षेप में दो प्रकार के हैं। पुनः द्रव्य से सम्बन्धित तो द्रव्म में है और भाव से सम्बन्धित आत्मा का परिणाम है ।। ४८८॥
माचारवृत्ति-सभी पिंड दोष द्रव्यगत और भावगत की अपेक्षा से संक्षेप से दो प्रकार हैं, अर्थात् द्रव्य पिण्डदोष और भाव पिण्डदोष ऐसे पिण्डदोष के दो भेद हैं। उद्गम
आदि दोष से सहित भो अध:कर्म से युक्त आहार द्रव्यगत पिण्डदोष कहलाता है। वह द्रव्यगत पूनः द्रव्य दोष है । भाव से अर्थात् आरम परिणाम से जो अशुद्ध है अर्थात् शुद्ध-प्रासुक भो आहार आदि पदार्थ परिणामों को अशुद्धि से अशुद्ध हैं, इसलिए भाव शुद्धि यत्नपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि भावशुद्धि से ही सर्व तपश्चरण और ज्ञान-दर्शन आदि व्यवस्थित होते हैं।
द्रव्य के भेद को कहते हैं
गाथार्थ-सर्वेषण, विद्वेषण और शुद्धाशन ये क्रमशः एषणा समिति से शुद्ध, निवि. कृति रूप और व्यंजन रहित हैं ऐसा जानो ॥४८६।।
माचारवृत्ति----सर्वेषण, 'च' शब्द से असवैषण, विद्वेषण, 'च' शब्द से अविद्वेषण, शुद्धाशन और 'च' शब्द से अशुद्धाशन ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् गाथा में तोन चकार होने से प्रत्येक के विपरीत का ग्रहण किया समझना चाहिए । एषणा समिति से शुद्ध आहार सर्व
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