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पिण्डशुद्धि-अधिकारः]
[३८३ पिण्ड शुद्धिमुपसंहरन्नाह
जेणेह पिंडसुद्धी उवदिट्ठा जेहि धारिदा सम्म ।
ते वीरसाधुवग्गा तिरदणसुद्धि मम दिसंतु ॥५०१॥*
सूत्रकारः फलार्थी प्राह-यैरिह पिण्डशुद्धिरुपदिष्टा यैश्चधारिता सेविता सम्यविधानेन ते वीरसाधुवर्गास्रि रत्नशुद्धि मम दिशन्तु प्रयच्छन्तु ॥५०१॥
इत्याचारवृत्ती वसुनन्दिविरचितायां पिण्डशुद्धिर्नाम षष्ठः प्रस्तावः । पिंडशुद्धि अधिकार का उपसंहार करते हैं
गाथार्थ-इस जगत् में जिन्होंने पिंडशुद्धि का उपदेश दिया है, और जिन्होंने सम्यक् प्रकार से इसे धारण किया है वे वीर साधुवर्ग मुझे तीन रत्न की शुद्धि प्रदान करें ॥५०॥
__प्राचारवृत्ति-सूत्रकार फल की इच्छा करते हुए कहते हैं कि जिन्होंने इस लोक में आहारशुद्धि का उपदेश दिया है और जिन्होंने सम्यक् विधान से उसका सेवन किया है वे वीर साधु समूह मुझे तीन रत्न की शुद्धि प्रदान करें। इस प्रकार आचारवृत्ति नामक टीका में श्रीवसुनंदि आचार्य द्वारा विरचित
पिंडशुद्धि नाम का छठा प्रस्ताव पूर्ण हुआ।
*फलटन से प्रकाशित मूलाचार में अन्त्यमंगल रूप एक गाथा और है
सगबोधदीवणिज्जिद भुवणतयरद्धमंदमोहतमो।
णमिवसरासरसंघो जय जिणिदो महावीरो॥
अर्थात जिन्होंने अपने केवलज्ञानरूपी दीप के द्वारा तीनों लोकों में व्याप्त मोहरूपी अन्धकार को नष्ट कर दिया है तथा जिनको मभी सुर-असुर समूह वन्दन करते हैं वे कर्मों के विजेता श्री महावीर भगवान सतत जयवन्त हों।
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