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utesकाधिकारः ]
श्रावासयणिज्जत्ती वोच्छामि जहाकमं समासेण । प्रायरिपरंपराए जहागदा आणुपुव्वीए ॥ ५०३ ।।
आवश्यक नियुक्ति वक्ष्ये । यथाक्रमं क्रममनतिलंध्य परिपाट्या । समासेन संक्षेपतः । आचार्य परंपरया यथागतानुपूर्व्या । येन क्रमेणागता पूर्वाचार्यप्रवाहेण संक्षेपतोऽहमपि तेनैव क्रमेण पूर्वागमक्रमं चापरित्यज्य वक्ष्ये कथयिष्यामीति ॥ ५०३ ॥
तावत्पचनमस्कारनिर्युक्तिमाह-
रागद्दोसकसाए य इंदियाणि य पंच य ।
परिसहे उवसग्गे णासयंतो णमोरिहा ||५०४॥
[ ३८५
रागः स्नेहो रतिरूपः । द्वेषोऽप्रीतिररतिरूपः । कषायाः क्रोधादयः । इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि पंच । परीषहाः क्षुदादयो द्वाविंशतिः । उपसर्गा देवादिकृतसंक्लेशाः । तान् रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गान् स्वतः कृतकृत्यत्वाद्भव्यप्राणिनां नाशयद्द्भ्यो बिनाशयद्भ्योऽर्हद्भ्यो नम इति ॥ ५०४ ॥
अन्तः या निरुक्त्या उच्यन्त इत्याह-
अरिहंत णमोक्कार अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए । राजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चचंदे ॥ ५०५॥
नमस्कार मर्हन्ति नमस्कारयोग्याः । पूजाया अर्हा योग्याः । लोके सुराणामुत्तमाः प्रधानाः । रजसो
गाथार्थ - आचार्य परम्परा के अनुसार और आगम के अनुरूप संक्षेप में यथाक्रम से मैं आवश्यक नियुक्ति को कहूँगा ||५०३ ॥
श्राचारवृत्ति - जिस क्रम से इन छह आवश्यक क्रियाओं का वर्णन चला आ रहा है, उसी क्रम से पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसार मैं संक्षेप से पूर्वागम का उल्लंघन न करके उनका कथन करूँगा ।
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पंच नमस्कार की निर्युक्ति को कहते हैं
गाथार्थ - राग, द्व ेष और कषायों को, पाँच इन्द्रियों को, परीषह और उपसर्गों को नाश करनेवाले अर्हन्तों को नमस्कार होवे ॥ ५०४ ॥
आचारवृत्ति- राग स्नेह अर्थात् रति रूप है । द्वेष अप्रीति अर्थात् अरतिरूप है । धादि को कषाय कहते हैं । चक्षु आदि इन्द्रियाँ पाँच हैं । क्षुधा, तृषा आदि बाईस परिषह होती हैं । देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन के द्वारा दिये गये क्लेश को उपसर्ग कहते हैं । इन राग द्वेष आदि को जो स्वयं नष्ट करके कृतकृत्य हैं किन्तु भव्य जीवों के इन राग-द्वेष, कषाय, इन्द्रिय परीषह और उपसर्ग को नष्ट करनेवाले हैं, ऐसे अर्हन्त भगवान् को नमस्कार हो ।
अब अर्हन्त शब्द की व्युत्पत्ति बतलाते हैं
गाथार्थ - नमस्कार के योग्य हैं, लोक में उत्तम देवों द्वारा पूजा के योग्य हैं, आवरण का और मोहनीय शत्रु का हनन करने वाले हैं, इसलिए वे अर्हन्त कहे जाते हैं ||५०५ ॥ प्राचारवृत्ति - इस संसार में जो देवों में प्रधान इन्द्रादिगण द्वारा नमस्कार के योग्य
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