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[मूलाधारे स्वेच्छाप्रवत्तिरपि च, मिवारचाराधनं सम्यक्त्वप्रतिकुलाचरणं, आत्मनाश: स्वप्रतिधातः, संयमविराधना चापि चर्यायां परिहर्तव्याः । भिक्षाचर्यायां प्रविष्टो मुनिरनवस्था यथा न भवति तथा चरति । मिथ्यात्वाराधनात्मनाशः संयमविराधनाश्च यथा न भवन्तीति तथा चरति तथान्तरायांश्च परिहराचरति ॥४६४॥
वतन्तरामा 'इत्याशक्याह
कागा मेज्झा छद्दी रोहण रुहिरंच अस्सुवाई। जण्हूहिट्ठामरिसं जण्हुवरि बदिक्कमो चेव ।।४६५॥ णाभिअधोणिग्गमणं पच्च विखयसेवणा य जंतुवहो। कागादिपिंडहरण पाणीदो पिडपडणं च ॥४६६॥ पाणीए जंतुवहो मंसादीदसणे य उवसग्गे। पादतरम्मि जीवो संपादो भायणाणं च ॥४६७॥ उच्चारं पस्सवणं प्रभोजगिहपवेसणं तहा पडणं । उववेसण सदंसं भूमीसंफास णिठ्ठवणं ॥४६॥ उदरक्किमिणिग्गमणं अदत्तगहण पहारगामडाहोय । पादेण किंचि गहण करेण वा जं च भूमीए ॥४६॥ एदे अण्णे बहुगा कारणभूदा प्रभोयणस्सेह। बोहणलोगदुगुंछणसंजमणिब्वेदणठं च ॥५००।
पालन करते हुए साधु विचरण करते हैं, ऐसा सम्बन्ध लगाना। और, निम्न दोषों का परिहार करते हुए विचरण करते हैं --अनवरथा-स्वेच्छाप्रवृत्ति, मिथ्यात्वाराधना-सम्यक्त्व के प्रतिकुल आचरण, आत्मनाश-स्व का घात, संयम विराधना-संयम की हानि ये दोष हैं । चर्या में प्रविष्ट हुए मुनि जैसे अनवस्था न हो वैसा आचरण करते हैं, मिथ्यात्व की आराधना आदि ये दोष जैसे न हो सके वैसा ही प्रयत्न करते हुए पर्यटन करते हैं, तथा अन्तरायों का भी परिहार करते हुए आहार ग्रहण करते हैं।
वे अन्तराय कौन से हैं ? सो हो बताते हैं -----
गाथार्थ--काक, अमेध्य, वमन, रोधन, रुधिर, अश्रुपात, जान्वधःपरामर्श, जानपरिव्यतिक्रम, नाभि से नीचे निर्गमन, प्रत्याख्यातसेवन, जन्तुबध, काकादि पिंडहरण, पाणिपात्र से पिडपतन, पाणिपुट में जन्तुवध, मांसादि दर्शन, उपसर्ग, पादान्तर में जीव संपात, भाजन संपात, उच्चार, मूत्र, अभोज्यगृह प्रवेश, पतन, उपवेशन,सदंश,भूमिस्पर्श, निष्ठीवन, उदर कृमि निर्गमन, अदत्तग्रहण, प्रहार, ग्रामदाह, पादेन किचित् ग्रहण अथवा भूमि से हाथ से किचित् ग्रहण करना। भोजन त्याग के और भी बहुत से कारण हैं । ये अन्तराय भय, लोक निन्दा, संयम की रक्षा और निर्वेद के लिए पाले जाते हैं ।।५००।।
१क इत्याशंकायामाह । *अन्तरायों का यह वर्णन फलटन से प्रकाशित मूलानार के प्रथम अध्याय में ही है।
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