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पिण्डशुद्धि-अधिकारः]
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प्रकाशनं द्वितीयः । संक्रमणमन्यस्मात्प्रदेशादन्यत्र नयनं प्रकाशनं भाजनादीनां भस्मादिनोदकादिना वा निर्मार्जन भाजनादेर्वा विस्तरणमिति । अथवा मण्डपस्य विरलनमुद्योतनं मण्डपादिविरलनं। आदिशब्देन कुड्यादिकस्य ज्वलनं प्रदीपद्योतनमिति संक्रमः सर्वः प्रादुष्कारो दोषोऽयं । ईर्यापथदोषदर्शनादिति ॥४३४।।
क्रीततरदोषमाह ---
कीदयडं पुण दुविहं दव्वं भावं च सगपरं दुविहं ।
सच्चित्तादी दव्वं विज्जामंतादि भावं च ।।४३५॥ . क्रोततरं पुनद्विविधं द्रव्यं भावश्च । द्रव्यमपि द्विविधं स्वपरभेदेन स्वद्रव्यं परद्रव्यं स्वभावः परभावश्च । सचित्तादिकं गोमहिष्यादिकं द्रव्यं । विद्यामंत्रादिक च भावः । संयते भिक्षायां प्रविष्टे स्वकीयं परकीयं वा सचित्तादिद्रव्यं दत्त्वाहारं प्रगृह्य ददाति तथा स्वमंत्र वा स्वविद्यां परविद्यां वा दत्त्वाहारं प्रगृह्य ददाति यत स क्रीतदोषः कारुण्यदोषदर्शनादिति । प्रज्ञप्त्यादिविद्या । चेटकादिर्मत्र इति ॥४५॥
ऋणदोषस्वरूपमाह
संक्रमण कहलाता है, तथा बर्तनों को भस्म आदि से मांजना या जल आदि से धोना अथवा बर्तन आदि का विस्तरण करना-उन्हें फैलाकर रख देना यह प्रकाशन कहलाता है। अथवा मण्डप का उद्योतन करना अर्थात् मण्डप वगैरह खोल देना आदि शब्द से दीवाल वगैरह को उज्ज्वल करना अर्थात् लीप-पोत कर साफ करना, दीपक जलाना, यह सब प्रादुष्कार नाम का दोष है क्योंकि इन सभी कार्यों में ईर्यापथ दोष देखा जाता है अर्थात् इन सब कार्य हेतु उस समय चलने-फिरने से ईर्यापथ शुद्धि नहीं रह सकती है।
. क्रोततर दोष को कहते हैं
गाथार्थ-क्रीततर दोष दो प्रकार का है-द्रव्य और भाव । वह द्रव्य भाव भी स्व और पर की अपेक्षा से दो-दो प्रकार का है। उसमें सचित्त आदि वस्तु द्रव्य हैं और विद्या-मन्त्र आदि भाव हैं ।।४३५॥
प्राचारवत्ति-द्रव्य और भाव की अपेक्षा क्रोततर दोष दो प्रकार का है। स्वद्रव्यपरद्रव्य और स्वभाव तथा परभाव इस तरह द्रव्य और भाव के भी दो-दो भेद हो जाते हैं। गाय, भैंस आदि सचित्त वस्तुएँ द्रव्य हैं । विद्या, मन्त्र आदि भाव हैं। अर्थात् संयत मुनि आहार के लिए प्रवेश कर चुके हैं, उस समय अपने अथवा पराये सचित्त-गाय, भैंस आदि किसी को देकर और उससे आहार लाकर साधु को दे देना। उसी प्रकार से स्वमन्त्र या परमन्त्र को अथवा स्व-विद्या या पर-विद्या को किसी को देकर उसके बदले आहार लाकर दे देना यह क्रीत दोष है; क्योंकि इस कार्य में करुणाभाव आदि दोष देखे जाते हैं।
विद्या और मन्त्र में क्या अन्तर है ? प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ हैं तथा चेटक आदि मन्त्र हैं।
ऋण दोष का स्वरूप कहते हैं१ क 'दोषस्वरूपमाह। २ क हारादिकं प्रगृह्य ।
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