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पिण्डशुद्धि-अधिकारः]
[३५१ दानाय प्रवर्तते तदानं यदि गलाति तदा तस्य क्षीरधात्रीनामोत्पादनदोषः । तथा स्वयं स्वापयति स्वापनिमित्तं विधानं चोपदिशति यस्मै दात्र स दाता दानाय प्रवर्तते तद्दानं यदि गह्णाति तदा तस्याम्बधात्रीनामोत्पादनदोषः । कथमयं दोष इति चेत् स्वाध्यायबिनाशमार्गदूषणादिदर्शनादिति ॥४४७॥
दूतनामोत्पादनदोषं विवृण्वन्नाह
जलथलमायासगवं सयपरगामे सदेसपरदेसे।
संबंधिवयणणयणं दूदीदोषो हववि एसो॥४४८॥
स्वग्रामात्परग्रामं गच्छति जले नावा तथा स्वदेशात्परदेशं गच्छति जले नावा तत्र तस्य गच्छतः कश्चिद् गृहस्थ एवमाह-भट्टारक ! मदीयं संदेशं गृहीत्वा गच्छ स साधुस्तत्सम्बन्धिनो वचनं नीत्वा निवेदयति यस्मै प्रहितं स परग्रामस्थ: परदेशस्थश्च तद्वचनं श्रुत्वा तुष्टः सन् दानादिकं ददाति तद्दानादिकं यदि साधुगल्हाति तदा तस्य दूतकर्मणोत्पादनदोषः । तथा स्थले गच्छत आकाशे च गच्छतः साधोयत्सम्बन्धिवचननयनं स्वग्रामात्परग्रामे. स्वदेशात्परदेशे, यस्मिन् ग्रामे तिष्ठति स स्वग्राम इत्युच्यते, तथा यस्मिन् देशे तिष्ठति बहनि
गृहस्थ भक्त होकर आहार दान देवे और यदि मुनि वह आहार ले लेवे तब उनके क्षीरधात्री नामक उत्पादन दोष होता है। ऐसे ही बालक को स्वयं जो सुलाता है अथवा सुलाने के प्रकार का उपदेश देता है और वह दाता उससे प्रभावित होकर मुनि को आहार देता है, यदि मुनि उससे आहार ग्रहण कर लेते हैं तब उनके अम्बधात्री नाम का उत्पादन दोष होता है।
प्रश्न-यह दोष क्यों है ?
उत्तर-इससे साधु के स्वाध्याय का विनाश होता है और मार्ग अर्थात् मुनिमार्ग में दूषण आदि लगते हैं । अतः यह दोष है ।
दूत नामक उत्पादन दोष को कहते हैं
गाथार्थ-स्व से पर ग्राम में या स्वदेश से परदेश में जल, स्थल या आकाश से जाते समय किसी के सम्बन्धो के वचनों को ले जाना यह दूत दोष होता है ।।४४८)।
___ आचारवत्ति-नाव के द्वारा जल को पार करके स्वग्राम से या परग्राम को जाते हों या जल, नदी आदि को पार करने में नाव से बैठकर स्वदेश से परदेश को जाते हों उस समय यदि कोई ग्रहस्थ ऐसा कहे कि हे भट्टारक ! मेरा सन्देश लेते जाइए और तब वे साधु भी उसके सन्देश को ले जाकर जिसको कहें वह श्रावक परग्राम का हो या परदेश में मुनि के वचन को सुनकर उन पर सन्तुष्ट होकर उन्हें दान आदि देता है और यदि मुनि वह आहार ले लेते हैं तो उनके दूतकर्म नाम का उत्पादन दोष होता है।
__इसी तरह साधु स्थल से जाते हों या आकाश मार्ग से जा रहे हों, यदि गृहस्थ के सन्देश वचन को ले जाकर अन्य ग्राम या देश में किसी गृहस्थ को कहते हैं और वह गृहस्थ सन्देश को सुनकर प्रसन्न होकर यदि मुनि को दान देता है तथा वे ले लेते हैं तो दूत कर्म दोप होता है।
जिस ग्राम में साधु रहते हैं वह उस समय उनका स्वग्राम है और जिस देश में बहुत
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