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भवत्युन्मिश्रः सर्वथा वर्जनीयो महादोष इति कृत्वेति ॥४७२ ॥ अपरिणतदोषमाह -
तिलतंडुलउसिणोदयं चणोदयं तुसोदयं अविद्धत्थं । हाविहं वा अपरिणदं णेव गेव्हिज्जो ॥ ४७३॥*
तिलोदकं तिलप्रक्षालनं । तंदुलोदकं तंदुलप्रक्षालनं । उष्णोदकं तप्तं भूत्वा शीतं च चणोदकं चणप्रक्षालनं । तुषोदकं तुषप्रक्षालनं । अविध्वस्तमपरिणतं आत्मीयवर्णगन्धरसापरित्यक्तं । अन्यदपि तथाविधमपरिणतं हरीतकी चूर्णादिना अविध्वस्तं । नैवं गृह्णीयात् नैव ग्राह्यमिति । एतानि परिणतानि ग्राह्याणीति ॥ ४७३॥
लिप्तदोषं विवृण्वन्नाह-
गेरुय हरिदालेण व सेडीय मणोसिलामपिट्ठ ेन ।
सपबालो' दणलेवेण व देयं करभायणे लित्तं ॥ ४७४ ॥
गैरिकया रक्तद्रवेण, हरितालेन सेढिकया षटिकया पांडुमृत्तिकया, मनःशिलया आमपिष्टेन वा है । निर्जीव अर्थात् मरे हुए बसों के आजाने का हेतुभूत कारण आहार मलदोष के अन्तर्गत आ जायेगा ।
अपरिणत दोष को कहते हैं
गाथार्थ - तिलोदक, तण्डुलोदक, उष्ण जल, चने का धोवन, तुषधोवन, विपरणित नहीं हुए और भी जो वैसे हैं, परिणत नहीं हुए हैं, उन्हें ग्रहण नहीं करे ||४७३॥
[मूलाचारे
श्राचारवृत्ति - तिलोदक - तिल का धोवन, तण्डुलोदक - चावल का धोवन, उष्णोदक -गरम होकर ठण्डा हुआ जल, चणोदक - चने का धोवन, तुषोदक - तुष का धोवन; अविध्वस्त-अपने वर्ण, गंध, रस, को नहीं छोड़ा है ऐसा जल, अन्य भी उसी प्रकार से हरड़ आदि के चूर्ण से प्रासुक नहीं किये हैं अथवा जल में हरड़ आदि का चूर्ण इतना थोड़ा डाला है कि वह जल अपने रूप गंध और रस से परिणत नहीं हुआ है; ऐसे जल आदि को नहीं लेना चाहिए । यदि ये परिणत हो गये हैं तो ग्रहण करने योग्य हैं ।
लिप्त दोष को कहते हैं-
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१ क लदगोल्लेणव' ।
* फलटन से प्रकाशित मूलाचार की इस में अन्तर है
गाथार्थ - गेरु, हरिताल, सेलखड़ी, मनःशिला, गीला आटा, कोंपल आदि सहित जल हुए हाथ या वर्तन से आहार देना सो लिप्त दोष है || ४७४॥
श्राचारवृत्ति -- गेरु, हरिताल, सेटिका - सफेद मिट्टी या खड़िया, मनशिल अथवा
तिलचाउणउसणोदय चणोदय तुसोदयं अविद्धत्थं । अपि य असणादी अपरिणवं णेव गेण्हेज्जो ॥
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