________________
३४२]
[मूलाचारे डहरियरिणं तु भणियं पामिच्छं प्रोदणाविअण्णदरं ।
तं पुण दुविहं भणिदं सवढियमवड्ढियं चावि ॥४३६॥
डहरियरिणं तु-लघुऋणं स्तोकर्ण भणितं । पामिच्छं—प्रामृष्यं ओदनादिकं भक्तं मण्डकादिमन्यतरत्। तत्पुद्विविधं सवृद्धिकमवृद्धिकं चापि। भिक्षौ चर्यायां प्रविष्टे दातान्यदीयं गृहं गत्वा भक्त्या भक्तादिकं याचते वृद्धि समिष्य वृद्धयाविना वा साधुहेतोः । तवोदनादिकं वृद्धिसहितमन्यथा दास्यामि मम भक्तं पानं खाद्य मण्डकाश्च प्रयच्छ। एवं भणित्वा मण्डकादीन् गृहीत्वा संयतेभ्यो ददाति तदृणसहितं प्रामृष्यं दोष जानीहि । दातु: क्लेशायासकरणादिदर्शनादिति ॥४३६।।
परावर्तदोषमाह
बीहीकूरादीहिं य सालोकूरादियं तु जंगहिदं ।
दातुमिति संजदाणं परियट्ट होवि णायव्वं ॥४३७॥ संयोभ्यो दातु व्रीहिरादिभिर्यच्छालिक रादिकं संगृहीतं तत्परिवर्त भवति ज्ञातव्यं । मदीयं
गाथार्थ-भात आदि कोई वस्तु कर्जरूप में दूसरे के यहाँ से लाकर देना लघुऋण कहलाता है । इसके दो भेद हैं-व्याज सहित और ब्याज रहित ॥४३६।।
प्राचारवृत्ति-लघु ऋण अर्थात् स्तोक ऋण । ओदन आदि भोजन तथा मण्डकरोटी आदि अन्य वस्तुओं को प्रामृष्य कहते हैं। इस ऋण दोष के वृद्धिसहित और वृद्धिरहित की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं। जब मुनि आहार के लिए आते हैं उस समय दाता श्रावक अन्य किसी के घर जाकर भक्ति से उससे भात आदि माँगता है और कहता है कि मैं आपको इससे अधिक भोजन दे दूंगा या इतना ही भोजन वापस दे दूंगा । अर्थात् इस समय मेरे घर पर साधु आये हुए हैं तुम मुझे भात, रोटी, पानक आदि चोजें दे दो, पुनः मैं तुम्हें इससे अधिक दे दूंगा या इतना ही लाकर दे दूंगा, ऐसा कहकर पुनः उसके यहाँ से लाकर यदि श्रावक मुनि को आहार देता है तो वह ऋण सहित प्रामृष्य दोष कहलाता है। इसमें दाता को क्लेश और परिश्रम आदि करना पड़ता है अतः यह दोष है।
भावार्थ-यदि दाता किसी से कुछ खाद्य पदार्थ उधार लाकर मुनियों को आहार देता है तो यह ऋण दोष है । उसमें भी उधार लाये हुए को पीछे ब्याज समेत देना या बिना ब्याज के उतना हो देना ऐसे दो भेद हो जाते हैं।
परावर्त दोष को कहते हैं
गाथार्थ-संयतों को देने के लिए ब्रीहि के भात आदि से शालि के भात आदि को ग्रहण करना इसे परिवर्त दोष जानना चाहिए ॥४३७।।
आचारवृत्ति-संयत मुनियों को देने के लिए जो ब्रीहि जाति के धान के भात को देकर उससे शालिजाति के धान के भात आदि को लाना यह परिवर्त दोष है । जैसे, मेरे ब्रीहि धान के भात को आप ले लो और मुझे शालि धान का भात दे दो, मैं साधुओं को दूंगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org