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[मूलाचारे
पाकाद्भाजनात् पाकनिमित्त यद्भाजनं यस्मिन् भाजने पाको व्यवस्थितस्तस्माद्भाजनात् पिठरादोदनादिकमन्यस्मिन् भाजने पात्र्यादौ प्रक्षिप्य व्यवस्थाप्य स्वगृहे परगृहे वानीत्वा निहितं स्थापितं यत् स्थापितदोषं जानीहि । सभयेन दात्रा दीयमानत्वाद्विरोधादिदोषदर्शनाद्वेति ॥ ४३० ॥
बलिदोषस्वरूपं निरूपयन्नाह
३३८ ]
जक्खयणागादीणं बलिसेस' स बलित्ति पण्णत्त ।
संजद आगमण बलियकम्मं वा बलि जाणे ॥ ४३१॥
यक्ष नागादीनां निमित्तं यो बलि' स्तस्य बलि ( लेः) शेष: स बलिशेषो बलिरिति प्रज्ञप्तः । सर्वत्र कारणे कार्योपचारात् । संयतानामागमनार्थं वा बलिकर्म तं बलि विजानीहि । संयतान् धृत्वार्चनादिकमुदक
श्राचारवृत्ति - जिस वर्तन में भात आदि आहार बनाया है उस वर्तन से अन्य वर्तन में रखकर अपने घर में (रसोईघर से अन्यत्र ) अथवा पर के घर में ले जाकर रख देना यह स्थापित दोष है । अर्थात् जो दाता उसे उठाकर देगा वह उस रखनेवाले से डरते हुए देगा अथवा कदाचित् जिसने अन्यत्र रखा था वह विरोध भी कर सकता है इत्यादि दोष होने से ही यह दोष माना गया है ।
बलि दोष का स्वरूप निरूपित करते हैं
गाथार्थ - यक्ष, नाग आदि के लिए नैवद्य में जो शेष बचा वह बलि कहा गया है। अथवा संयतों के आने के लिए बलिकर्म करना बलिदोष जानो ॥४३१ ॥
प्राचारवृत्ति - यक्ष, मणिभद्र आदि अथवा नाग आदि देवों के निमित्त जो नैवेद्य बनाया है उसे बलि संज्ञा है । उसमें से कुछ शेष बचे हुए को भी बलि कहते हैं । यहाँ सर्वत्र कारण में कार्य का उपचार किया गया है। ऐसा शेष बचा नैवेद्य यदि मुनि को आहार में दे देवें तो वह बलिदोष है । अथवा संयतों के आने के लिए बलिकर्म करना अर्थात् 'यदि आज मेरे घर में मुनि आहार को आ जावेंगे तो मैं यक्ष को अमुक नैवेद्य चढ़ाऊँगा' इत्यादि रूप से संकल्प करना बलिकर्म है । ऐसा करके आहार देने से भी बलिनाम का दोष होता है ।
संयतों का पड़गाहन करके अर्चन आदि करना, जल-क्ष ेपण करना, पत्रिकादि का खण्डन करना आदि, तथा यक्षादि की पूजा से बचा हुआ नैवेद्य आहार में देना यह सब बलिदोष है क्योंकि इसमें सावध दोष देखा जाता है ।
भावार्थ - यहाँ पर संयतों को पड़गाहन करके अर्चन आदि करना, जल-क्षेपण करना आदि दोष बतलाया है तथा संयत का पड़गाहन कर नवधा भक्ति में उच्चासन देना, तत्पश्चात् प्रलाक्षन करना; जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्ध्य से पूजन करना आदि भी आवश्यक है । सो यहाँ ऐसा अर्थ करना चाहिए कि संयतों के आने के बाद तत्काल सावद्य कार्य जैसे फूल तोड़ना, दीप जलाना आदि नहीं करना चाहिए। पहले से ही सब अष्टद्रव्य सामग्री तैयार रखनी चाहिए। क्योंकि पड़गाहन के बाद, उच्चासन पर बिठाकर, १ क सं तं ब । २ क बलिः कृतस्त ं ।
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