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निरुध्यात्मवशं कृत्वा । धर्म चतुर्विधं चतुर्भेदं । घ्याय चिन्तय । के ते चत्वारो विकल्पा इत्याशंकायामाहआज्ञाविचयोऽपायविचयो विपाकविचयः संस्थानविचयश्चेति ॥३६८॥
तत्राज्ञाविचयं विवृण्वन्नाह
पंचत्थिकायछज्जीवणिकाये कालदव्यमण्णे य।
प्राणागेझे भावे प्राणाविचयेण विचिणादि ॥३६६
पंचास्तिकायाः जीवास्तिकायोऽजीवास्तिकायो धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायो वियदास्तिकाय इति तेषां प्रदेशबन्धोऽस्तीति कृत्वा काया इत्युच्यन्ते । षड्जीवनिकायश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः । कालद्रव्यमन्यत् । अस्य प्रदेशबन्धाभावादस्तिकायत्वं नास्ति । एतानाज्ञाग्राह्यान् भावान् पदार्थान् । आज्ञाविचयेनाज्ञास्वरूपेण । विचिनोति विवेचयति ध्यायतीति यावत् । एते पदार्थाः सर्वज्ञनाथेन वीतरागेण प्रत्यक्षेण दृष्टा न कदाचिद् व्यभिचरन्तीत्यास्तिक्यबुद्ध्या तेषां पृथक्पृथग्विवेचनेनाज्ञाविचयः । यद्यप्यात्मनः प्रत्यक्षबलेन हेतुबलेन
पर कहते हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद धर्मध्यान के हैं।
भावार्थ-यहाँ एकाग्रचिन्तानिरोध लक्षणवाला ध्यान कहा गया है। पंचेन्द्रियों के विषय का छोड़ना और काय की तथा वचन की क्रिया नहीं करना 'एकाग्र' है, तथा मन का व्यापार रोकना चिन्तानिरोध है। इस प्रकार से ध्यान के लक्षण में इन्द्रियों के विषय से हटकर तथा मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से छूटकर जब मन अपने किसी ध्येय विषय में टिक जाता है, रुक जाता है, स्थिर हो जाता है उसी को ध्यान यह संज्ञा आती है।
गाथार्थ-उसमें से पहले आज्ञाविचय का वर्णन करते हैं-पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय और कालद्रव्य ये आज्ञा से ग्राह्य पदार्थ हैं। इनको आज्ञा के विचार से चिन्तवन करना है ॥३६६।।
प्राचारवृत्ति-जीवास्तिकाय, अजीवास्तिकाय, (पुद्गलास्तिकाय) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय हैं। इन पांचों में प्रदेश का बन्ध अर्थात् समूह विद्यमान है अतः इन्हें काय कहते हैं । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये षट्जीवनिकाय हैं। और अन्य-छठा कालद्रव्य है। इसमें प्रदेशबन्ध का अभाव होने से यह अस्तिकाय नहीं है। अर्थात् काल एक प्रदेशी होने से अप्रदेशी कहलाता है इसलिए यह 'अस्ति' तो है किन्तु काय नहीं है। ये सभी पदार्थ जिनेन्द्रदेव की आज्ञा से ग्रहण करने योग्य होने से आज्ञाग्राहा हैं। आज्ञाविचय से अर्थात् आज्ञारूप से इनका विवेचन करना-ध्यान करना आज्ञाविचय है।
तात्पर्य यह कि वीतराग सर्वज्ञदेव ने इन पदार्थों को प्रत्यक्ष से देखा है । ये कदाचित भी व्यभिचरित नहीं होते हैं अर्थात् ये अन्यथा नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार से आस्तिक्य बुद्धि के द्वारा उनका पृथक्-पृथक् विवेचन करना, चिन्तवन करना यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। यद्यपि ये पदार्थ स्वयं को प्रत्यक्ष से या तर्क के द्वारा स्पष्ट नहीं हैं फिर भी सर्वज्ञ की आज्ञा के
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