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[मूलाचारे
चारमनिवृत्तिनिरुद्धयोगमपश्चिमं शुक्लमविचलं मणिशिखावत् । तस्य चतुर्थध्यानस्यायोगी स्वामी । यद्यप्यत्र मानसो व्यापारो नास्ति तथाप्युपचारक्रिया ध्यानमित्युपचर्यते । पूर्व प्रवृत्तिमपेक्ष्य घृतघटवत् पुंवेदवद्वेति ॥४०५॥
व्युत्सर्गनिरूपणायाह
दुविहो य विउस्सग्गो प्रब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो । श्रब्भंतर कोहादी बाहिर खेत्तादियं दव्वं ॥४०६ ॥
द्विविधो द्विप्रकारो व्युत्सर्गः परिग्रहपरित्यागोऽभ्यन्तरवाहिरो अभ्यन्तरो वाह्यश्च ज्ञातव्यः । क्रोधादीनां व्युत्सर्गोभ्यन्तरः । क्षेत्रादिद्रव्यस्य त्यागो वाह्यो व्युत्सगं इति ॥ ४०६ ॥ अभ्यन्तरस्य व्युत्सर्ग भेदप्रतिपादनार्थमाह-
मिच्छत्तवेदरागा तहेव हस्सादिया व छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया चोहस श्रब्भंतरा गंथा ॥ ४०७ ॥
अनिवृत्तिनिरोध योग है। सभी ध्यानों में अन्तिम है इससे उत्कृष्ट अब और कोई ध्यान नहीं रहा है अतः यह अनुत्तर है । परिपूर्णतया स्वच्छ उज्ज्वल होने से शुक्लध्यान इसका नाम 1 यह मणि के दीपक की शिखा के समान होने से पूर्णतया अविचल है । इस चतुर्थ ध्यान के स्वामी चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली हैं ।
यद्यपि इन तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में मन का व्यापार नहीं है तो भी उपचार क्रिया से ध्यान का उपचार किया गया है। यह ध्यान का कथन पूर्व में होनेवाले ध्यान की प्रवृत्ति की अपेक्षा करके कहा गया है, जैसे कि पहले घड़े में घी रखा था पुनः उस घड़े से घी निकाल देने के बाद भी उसे घी का घड़ा कह देते हैं अथवा पुरुषवेद का उदय नवमें गुणस्थान में समाप्त हो गया है फिर भी पूर्व की अपेक्षा पुरुष वेद से मोक्ष की प्राप्ति कह देते हैं । भावार्थ -- इन सयोगी और अयोग केवली के मन का व्यापार न होने से इनमें 'एकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानं' यह ध्यान का लक्षण नहीं पाया जाता है। फिर भी कर्मों का नाश होना यह ध्यान का कार्य देखा जाता है अतएव वहाँ पर उपचार से ध्यान माना जाता है ।
अब अन्तिम व्युत्सर्ग तप का निरूपण करते हैं
गाथार्थ - आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से व्युत्सर्ग दो प्रकार जानना चाहिए। क्रोधआदि अभ्यन्तर हैं और क्षेत्र आदि द्रव्य बाह्य हैं ॥ ४०६ ॥
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श्राचारवृत्ति - परिग्रह का परित्याग करना व्युत्सर्ग तप है । वह दो प्रकार का हैअभ्यन्तर और बाह्य । क्रोधादि अभ्यन्तर परिग्रह हैं, इनका परित्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है । क्षेत्र आदि बाह्य द्रव्य का त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग हैं ।
अभ्यन्तर व्युत्सर्ग का वर्णन करते हैं
गाथार्थ - मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य आदि छह दोष और चार कषायें ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं ||४०७ ||
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