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[मूलाचार तित्थयराणं-तीर्थ संसारतरणोपायं कुर्वन्तीति तीर्थकराः अर्हद्भट्टारकास्तेषां। पडिणीओप्रत्यनीकः प्रतिकूलः। संघस्स य—संघस्य च ऋषियतिमुन्यनगाराणां ऋषिश्रावकश्राविकार्यिकाणां सम्यग्दर्शनशानचारित्रतपसां वा। चेइगस्स-चैत्यस्य सर्वज्ञप्रतिमायाः सुत्तस्स-सूत्रस्य द्वादशाङ्ग चतुर्दशपूर्वरूपस्य । अविणीओ-अविनीतः स्तब्धः। णियडिल्लो----निकृतिवान् वंचनाबहुल: प्रतारणकुशलः । किग्विसियेसूब- . बज्जेइ-किल्विषेषत्पद्यते । पाटहिकादिषु जायते । तीर्थकराणां प्रत्यनीक: संघस्य चैत्यस्य सूत्रस्य वा अविनीतः मायावी च यः स किल्विषकर्मभिः किल्विषिकेषु जायते इति । सम्मोहभावनास्वरूपं तदुत्पत्या सह निरूपयन्नाह
उम्मग्गदेसमो मग्गणासओ मग्गविपडिवण्णो य।
मोहेण य मोहंतो' संमोहेसूववज्जेदि' ॥६७॥ उम्मग्गदेसओ-उन्मार्गस्य मिथ्यात्वादिकस्य देशकः उपदेशकर्ता उन्मार्गदेशकः। मग्गणासओमार्गस्य सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य णासओ-नाशको विराधको मार्गनाशकः । मग्गविपडिवण्णो य-- मार्गस्य विप्रतिपन्नो विपरीतः स्वतीर्थप्रवर्तकः मार्गविप्रतिपन्नः । मोहेण य-मोहेन च मिथ्यात्वेन मायाप्रपंचेन वा । मोहंतो--मोहयन् विपरीतान् कुर्वन्, संमोहेसूववज्जेवि-स्वंमोहेषु स्वच्छन्ददेवेषूत्पद्यते । य उन्मार्गदेशक:
प्राचारवृत्ति-संसार समुद्र से पार होने के उपाय रूप तीर्थ को करनेवाले तीर्थंकर हैं, उन्हें अर्हन्त भट्टारक कहते हैं उनके जो प्रतिकूल हैं; तथा ऋषि, यति, मुनि और अनगार को संघ कहते हैं अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इनको भी चतुर्विध संघ कहते हैं। अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को भी संघ शब्द से कहा है। सर्वज्ञदेव की प्रतिमा को चैत्य कहते हैं। बारह अंग और चौदह पूर्व को सूत्र कहते हैं। जो ऐसे संघ, चैत्य और सूत्र के प्रति विनय नहीं करते हैं और दूसरों को ठगने में कुशल हैं, वे इस किल्विष कार्यों के द्वारा पटह आदि वाद्य बजानेवाले किल्विषक जाति के देवों में उत्पन्न हो जाते हैं।
विशेषार्थ-इन किल्विषक जाति के देवों को इन्द्र की सभा में प्रवेश करने का निषेध है। ये देव चाण्डाल के समान माने गये हैं। जो साधु सम्यक्त्व से च्युत होकर तीर्थंकर देव आदि की आज्ञा नहीं पालते हैं, उपर्युक्त दोषों को अपने जीवन में स्थान देते हैं वे पूर्व में यदि देवायु बांध भी ली हो तो मरकर ऐसी देवदुर्गति में जन्म ले लेते हैं।
सम्मोह भावना का स्वरूप और उससे होने वाली देव दुर्गति को बताते हैं
गाथार्थ-जो उन्मार्ग का उपदेशक है, सन्मार्ग का विघातक तथा विरोधी है वह मोह से अन्य को भी मोहित करता हुआ सम्मोह जाति के देवों में उत्पन्न होता है ॥६७।।।
प्राचारवृत्ति-जो उन्मार्ग अर्थात् मिथ्यात्व आदि का उपदेशकर्ता है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्षमार्ग की विराधना करनेवाला है, तथा इसी सन्मार्ग के विपरीत है अर्थात् स्वतीर्थ का प्रवर्तक है । वह साधु मिथ्यात्व अथवा माया के प्रपंच से अन्य लोगों
१. कमोहितो। २. क ववजह ।
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