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[मूलाचारे नरकस्य नरके वा। कदम-कियदिदं कतमत् । मए-मया। ण पत्तं-----न प्राप्तं । अथवा, अणं ऋणं कृतं मया यत्तन्मयैव प्राप्त। संसारे--जातिजरामरणलक्षणे। संसरतेण-संसरता परिभ्रमता। संन्यासकाले यदुत्पद्यते क्षुधादि दुःखं ततो नरकस्य स्वभावो द्रष्टव्यो यतः संसारे संसरता मया किमिदं न प्राप्तं यावता हि प्राप्तमेवेति चिन्तनीयमिति ॥७९॥ यथा प्राप्तं तथैव प्रतिपादयति
संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेवि पुग्गला बहुसो।
आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती ॥७६॥ संसारचक्कवालम्मि-संसारचक्रवाले चतुर्गतिजन्मजरामरणावर्ते । मए---मया । सर्वविसर्वेऽपि । पुग्गला-पुद्गला दधिखंडगुडौदननीरादिका। बहुसो-बहुशः बहुवारान् अनन्तवारान् । आहारिदा य---आहृता गृहीता भक्षिताश्च । परिणामिदा य-परिणामिताश्च जीर्णाश्च खल रसस्वरूपेण गमिता इत्यर्थः । ण य मे-न च मम । गदातित्ती-ता तृप्तिः सन्तोषो न जातः, प्रत्युत आकांक्षा जाता। संसारचक्रवाले सर्वेऽपि पुद्गला बहुशः आहृताः परिणामिताश्च मया न च मम गता तृप्तिरिति चिन्तनीयम् ।
'स्वभावतः' में तस् प्रत्यय है सो 'दृश्यतेऽन्यत्रापि' इस नियम से पंचमी अर्थ में नहीं, किन्तु वहाँ द्वितीया विभक्तिरूप अर्थ निकल आता है अथवा प्राकृत व्याकरण के नियम से यहाँ अक्षर की अधिकता होते हुए भी 'स्वभाव' ऐसा अर्थ निकलता है । अर्थात् ऐसा सोचना चाहिए कि मैंने नरक आदि गतियों में कौन-सा दुःख नहीं प्राप्त किया है । अथवा गाथा के 'मए ण' पद को मए अण संधि निकालकर अण का ऋण करके ऐसा समझना चाहिए कि जो मैने ऋण अर्थात् कर्जा किया था वही तो मैं प्राप्त कर रहा हूँ अर्थात् इस जन्म-मरण और वृद्धावस्थामय संसार में परिभ्रमण करते हुए जो मैंने ऋण रूप में कर्म संचित किये हैं उनका फल मुझे ही भोगना पड़ेगा उस कर्जे को तो पूरा करना, चुकाना ही पड़ेगा। तात्पर्य यह कि सल्लेखना के समय यदि भूख प्यास आदि वेदनाएँ उत्पन्न होती हैं तो उस समय नरकों के दुःखों के विषय में विचार करना चाहिए जिससे उन वेदनाओं से धैर्यच्युत नहीं होता है। ऐसा सोचना चाहिए कि अनादि संसार में भ्रमण करते हुए मैंने क्या यह दुःख नहीं पाया है ? अर्थात् इन बहुत प्रकार के अनेक-अनेक दुःखों को मैंने कई-कई बार प्राप्त किया ही है। अब इस समय धैर्य से सहन कर लेना ही उचित है।
जिस प्रकार से प्राप्त किया है उसी का प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ-इस संसार रूपी भँवर में मैंने सभी पुद्गलों को अनेक बार ग्रहण किया है और उन्हें आहार आदि रूप परिणमाया भी है किन्तु उनसे मेरी तृप्ति नहीं हुई है ।।७।।
आचारवृत्ति—चतुर्गति के जन्म-मरण रूप आवर्त अर्थात् भंवर में मैंने दही,खाण्ड, गुड़, भात जल आदि रूप सभी पुद्गल वर्गणाओं को अनन्त बार ग्रहण किया है, उनका आहार रूप से भक्षण किया है और खलभाग रसभाग रूप से परिणमाया भी है अर्थात् उन्हें जीर्ण भी किया है, किन्तु आजतक उनसे मुझे तृप्ति नहीं हुई, प्रत्युत आकांक्षाएँ बढ़ती ही गयी हैं, ऐसा विचार करना चाहिए। १. क यत्तन्न।
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