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सामाचाराधिकारः]
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सम्पन्न: । अवज्जभीरु-अवद्यभीरुरवा पापं कुत्स्यं तस्माद्भयनशीलोऽवद्यभीरुः । परिसुद्धो-परिसमन्ताच्छुद्धः परिशुद्धोऽखण्डिताचरणः । संगह-संग्रहो दोक्षाशिक्षाव्याख्यानादिभिरुपग्रहः, अणुग्गह-अनुग्रहः प्रतिपालनं आचार्यत्वादिदानं याभ्यां तयोर्वा (कुसलो) कुशलो निपुण: संग्रहानुग्रहकुशल: पात्रभूतं गृह्णाति गृहीतस्य च शास्त्रादिभिः संयोजनं । सददं-सततं सर्वकालं । सारक्खणाजुत्तो-सहारक्षणेन वर्तत इति सारक्षणा क्रिया पापक्रियानिवृत्तिस्तया युक्त रक्षायां युक्तः हितोपदेशदातेति ॥१८३॥
गंभीरो-गुणरगाधोड लब्धपरिमाणः । दुद्धरिसो-दुर्धर्षोऽकदर्थ्यः स्थिरचित्तः। मिववादीमितं परिमितं वदतीत्येवं शीलो मितवादी अल्पवदनशीलः । अप्पकोदुहल्लो य-अल्पं स्तोक कुतूहलं कौतूकं यस्यासावल्पकुतूहलोऽविस्मयनीयो ऽथवा अल्पगुह्य दीर्घस्तब्धः प्रश्रवादिरहित: चशब्द: समुच्चयार्थः । चिरपव्वइदो-चिरप्रवजितः निव्यूं ढवतभारो गुणज्येष्ठः। गिहिदत्थो--गृहीतो ज्ञातोऽर्थः पदार्थं स्वरूपं येनासो गृहीतार्थः आचारप्रायश्चित्तादिकुशलः। अज्जाणं-आर्याणां संयतीनां । गणधरो-मर्यादोपदेशक: प्रतिक्रमणाद्याचार्यः । होदि-भवति । प्रियधर्मा दृढधर्मा संविग्नोऽवद्यभीरुः परिशुद्धः संग्रहानुग्रहकुशलः सततं सारक्षणयुक्तो गम्भीरदुर्धर्षमितवाद्यल्पकौतुकचिरप्रवजितगृहीतार्थश्च यः स आर्याणां गणधरो भवतीति ॥१८४॥
अथान्यथाभूतो यदि स्यात् तदानीं किं स्यादित्यत आह
हैं अर्थात उपशम आदि से समन्वित हैं। दढ है धर्म का अभिप्राय जिनका वे दढधर्मा हैं। जो धर्म और उसके फल में हर्ष से सहित हैं वे संविग्न हैं । जो पाप से डरनेवाले हैं वे पापभीरू हैं। जो सब तरफ से शुद्ध आचरणवाले-अर्थात् अखण्डित आचरणवाले हैं वे परिशुद्ध हैं। दीक्षा, शिक्षा, व्याख्यान आदि के द्वारा उपकार करना संग्रह है और उनका प्रतिपालन करना आचार्यपद आदि प्रदान करना अनुग्रह है। जो इन संग्रह और अनुग्रह में निपुण हैं अर्थात् पात्र-योग्य को ग्रहण करते हैं और ग्रहण किए गये को शास्त्रज्ञान आदि से संयुक्त करते हैं और हमेशा सारक्षण क्रिया अर्थात् पाप क्रिया की निवृत्ति से युक्त रहते हैं अर्थात् संघ के मुनियों की रक्षा में युक्त होते हुए उन्हें हित का उपदेश देते हैं,
जो गुणों से अगाध हैं अर्थात् जिनके गुणों का कोई माप नहीं है, जो किसी से कर्थित -तिरस्कृत नहीं हैं अर्थात् स्थिरचित्त हैं, जो थोड़ा बोलनेवाले हैं, जो अल्प कौतुक करनेवाले हैं–विस्मयकारी नहीं हैं अथवा अल्प गुह्य विषय को छिपानेवाले अर्थात् शिष्यों के दोषों को
उनको अन्य किसी से न बतानेवाले हैं, चिरकाल से दीक्षित हैं अर्थात व्रतों के भार को धारण करनेवाले हैं, गुणों में ज्येष्ठ हैं, गृहीतार्थ-पदार्थों के स्वरूप को जाननेवाले हैं-आचारशास्त्र और प्रायश्चित्त आदि शास्त्रो में कुशल हैं ऐसे आचार्य आर्यिकाओं की प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को करानेवाले, उनको मर्यादा का उपदेश देनेवाले उनके गणधर होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि उपर्युक्त गुणविशिष्ट आचार्य ही अपने संघ में आर्यिकाओं को रखते हुए उनको प्रायश्चित्त आदि देते हैं।
__ यदि आचार्य इन गुणों से रहित है और आर्यिकाओं का गणधर बनता है तो क्या होगा ? सो ही बताते हैं
सुनकर उस
१. क गुह्यः ।
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