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पंचाचाराधिकारः]
[२५५ पूर्णो जात्यश्वादिभिरुह्यमानः इत्येवमादयोऽन्येऽपि बहशोऽनेकवार येन मार्गेण गच्छन्ति स मार्गः प्रासुको भवेदिति ॥३०४॥
के ते एवमादिका इत्यत आह
हत्थी अस्सो खरोढो वा गोमहिसगवेलया।
बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे ॥३०५॥
हस्तिनोऽश्वा गर्दभा उष्ट्रा गावो महिष्यः गवेलिका अजा अविकादयो बहुशो येन मार्गेण गच्छन्ति स मार्गः प्रासुको भवेत् ॥३०५।।
इत्थी पुंसा व गच्छंति प्रादवेण य ज हदं।
सत्थपरिणदो चेव सो मग्गो फासुप्रो हवे॥३०६॥
स्रियः पुरुषाश्च येन वा गच्छन्ति । आतापेनादित्यदावानलतापेन यो हतः । शस्त्रपरिणत: कृषीकृतः स मार्गः प्रासुको भवेत् । तेन मार्गेण यत्नवता स्वकार्येणोद्योतेन गन्तव्यमिति ॥३०६।।
विशेष-यहाँ पर बैलगाड़ी, हाथी घोड़े, पालकी, रथ आदि वाहन को लिया है तथा और भी अन्यों के लिए कहा है। इससे आजकल की बसें, कारें, साइकिल आदि जिस मार्ग पर चलते हैं वह भी प्रासुक हो जाता है, ऐसा समझें।
'इसी प्रकार से और भी जो कुछ होवें' ऐसा जो आपने कहा है वे और क्या क्या हैं ? सो ही आचार्य बताते हैं
गाथार्थ-हाथी, घोड़ा, गधा, ऊँट अथवा गाय, भैस, बकरी या भेड़ें जिस मार्ग से बहुत बार चलते हैं वह मार्ग प्रासुक हो जाता है ॥३०॥
प्राचारवृत्ति-हाथी, घोड़े, गधे, ऊँट, गायें, भैंसें, बकरे और भेड़ आदि जिस मार्ग से बार बार निकलते हैं वह मार्ग प्रासुक-जीवरहित शुद्ध हो जाता है।
गाथार्थ-जिस पर स्त्री-पुरुष चलते रहते हैं, जो आतप अर्थात् सूर्य की किरण आदि से संतप्त हो चुका है और जो शस्त्रों से क्षुण्ण हो गया है वह मार्ग प्रासुक हो जाता है ।।३०६॥
प्राचारवत्ति-जिस मार्ग से स्त्री-पुरुष गमन करते रहते हैं, जो सूर्य के घाम से अथवा दावानल से संतप्त या दग्ध हो चुका है अर्थात् जिस मार्ग पर सूर्य की किरणें पड़ चकी हैं या जो अग्नि आदि के संसर्ग से जल चुका है, जिसमें हल आदि चलाये जा चुके हैं अर्थात् जहाँ से किसानों के हल निकल चुके होते हैं वे सभी मार्ग प्रासुक हो जाते हैं। इनइन प्रासुक मार्गों से सावधानीपूर्वक अपने कार्य के निमित्त से प्रकाश में मुनि को गमन करना चाहिए। यह ईर्यासमिति का लक्षण हुआ।
विशेष-उपर्युक्त प्रकार से जो मार्ग प्रासुक हो जाते हैं। उन मार्गों से चलते हुए भी मुनि दिवस में ही चलें, न कि रात्रि में। सूर्य के प्रकाश में और चक्षु-इन्द्रिय के प्रकाश में ही चलें, वह भी प्रयत्नपूर्वक । इसी का नाम ईर्यासमिति है।
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