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पंचाचाराधिकारः ]
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युक्तं, मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्यवचनसहितं, अनिष्ठुरम क केशमनुद्धतमर्थवत्, श्रवणकान्तं सुललिताक्षरपदवाक्यविरचितं, हेयोपादेयसंयुक्तं - इत्थंभूतं सत्यं वाच्यं । लिंगसंख्याकालकारकपुरुषोपग्रहसमेतं धातुनिपातबलाबलच्छन्दोऽलंकारादिसमन्वितं वाच्यमिति सम्बन्धः || ३१३ ||
एतद्व्यतिरिक्तमसत्यमिति प्रतिपादयन्नाह -
तव्दिवरीदं मोसं तं उभयं जत्थ सच्चमोसं तं । तव्दिवरीदा भासा असच्चमोसा हवदि दिट्ठा ॥ ३१४ ॥
I
तद्दशप्रकार सत्यविपरीतं पूर्वोक्तस्य सर्वस्य प्रतिकूलमसत्यं मृषा । तयोः सत्यासत्ययोरुभयं यत्र पदे वाक्ये वा सत्यमृपावचनं तत् गुणदोषसहितत्वात् । तस्मात्सत्यमृषावादाद्विपरीता भाषा वचनोक्तिरसत्यपोक्तिः । सा भवति दृष्टा जिनैः । न सा सत्या न मृषेति सम्बन्धः ॥ ३१४ ।।
असत्यमृषाभाषां विवृण्वन्नाह-
विरोध, समय - आगमविरोध और स्ववचन विरोध से रहित, प्रमाण से उपपन्न- प्रमाणीक, नैगम आदि नयों की अपेक्षा सहित, जाति और युक्ति से युक्त; मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ वचनों से सहित, निष्ठुरता रहित, कर्कशता रहित, उद्धता रहित, अर्थ सहित, कानों को सुनने में मनोहर, सुललित अक्षर, पद और वाक्यों से विरचित, हेय और उपादेय से संयुक्त ऐसे सत्य वचन बोलना चाहिए। तथा लिंग, संख्या, काल, कारक, उत्तम मध्यम- जघन्य पुरुष, उपग्रह से सहित धातु निपात, बलाबल, छन्द, अलंकार आदि से समन्वित भी सत्य वचन बोलना चाहिए अर्थात् उपर्युक्त प्रकार से व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार, आगम और लोकव्यवहार आदि के अनुरूप सत्य वचन बोलना ही श्रेयस्कर है।
इनसे व्यतिरिक्त जो वचन हैं वे असत्य हैं ऐसा प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ - उपर्युक्त सत्य वचन से जो विपरीत है वह असत्य है । जिसमें सत्य और असत्य दोनों हैं वह सत्यमृषा है। इन उभय से विपरीत अनुभय वचन असत्यमृषा कहे गये हैं ।। ३१४ ||
श्राचारवृत्ति - पूर्वोक्त सभी दश प्रकार के सत्य वचनों से प्रतिकूल वचन को मृषा कहते हैं । जिस पद या वाक्य में ये सत्य और असत्य दोनों ही वचन मिश्र हों वह सत्यमृषा नाम को प्राप्त होता है, क्योंकि वह उभयवचन गुण-दोष, दोनों से सहित है। इस सत्यमृषा कथन से विपरीत भाषा असत्यमृषा है, क्योंकि यह न सत्य है न असत्य है अत: अनुभय रूप है । ऐसा जिनेन्द्रदेव ने देखा है अर्थात् कहा है ।"
तात्पर्य यह है कि सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के भेद से वचन चार प्रकार के हैं । उनमें से असत्य वचन और उभयवचन को छोड़ देना चाहिए और सत्यवचन तथा अनुभय वचन बोलना चाहिए । इसी बात को भाषा समिति के लक्षण (गाथा ३०७ ) में कहा है ।
अब असत्यमृषा भाषा का वर्णन करते हैं—
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