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पंचाचाराधिकारः।
[२६६ लेखनेन सम्माादानं ग्रहणं वा कर्तव्यं । स्थापितस्य पुस्तकादे: पून: कतिपयदिवसरालोकनं कर्तव्यमिति ॥३२०॥
उच्चारप्रस्रवणसमितिस्वरूपनिरूपणायाह
वणदाहकिसिमसिकदे थंडिल्लेणप्परोध वित्थिण्णे।
अवगदर्जत विवित्त उच्चारादी विमज्जेज्जो॥३२॥
वनदाहो दावानलः। कृषिः शीरेणाऽनेकवारभूमेविदारणं । मषी श्मशानांगारानलादिप्रदेशः। कृतशब्दः प्रत्येकमभिराम्बध्यते । वनदाहीकृते, कृपीकृते, मषीकृते, स्थंडिलीकृते, ऊपरीकृते । अनुपरोधे लोकोपरोधवजिते । विस्तीर्ण विशाले। अपगता अविद्यमाना जन्तवो द्वीन्द्रियादयो यत्र सोपगतजन्तुस्तस्मिन्नपगतजन्तौ । विविक्तेऽणुच्याद्यपस्कररहिते जनरहिते वा उच्चारादीन् विसर्जयेत् परित्यज्येत् । अचित्तभूमिदेश इत्यनेन सह सम्बन्धः कर्तव्य इति ॥३२१॥
अथ के ते उच्चारादय इत्याशंकायामाह
भावार्थ-दिन में जितनी वार भी पुस्तक, कमण्डलु, चौकी आदि वस्तुओं को उठाना या रखना हो तो भलीभाँति देखकर और पिच्छी से परिमाजित करके ही ग्रहण करना चाहिए। यदि रात्रि में प्रसंगवश या करवट आदि लेना हो तो भी पिच्छिका से परिमार्जन करना चाहिए । तथा जिनका प्रतिदिन उपयोग नहीं होता ऐसी पुस्तक आदि यदि वसतिका में रखी हुई हैं तो उन्हें भी कुछ दिनों में पुनः देखकर, पिच्छिका से परिमार्जित करके रहना चाहिए, अन्यथा उनमें मकड़ी के जाले या वर्षा की सीलन से फफूंदी आदि लग जाने का अथवा सूक्ष्म त्रस जन्तु उत्पन्न हो जाने का भय रहता है। उन्हें दूसरे तीसरे दिन सँभालते रहने से ऐसा प्रसंग नहीं आता है ।
उच्चारप्रस्रवण-प्रतिष्ठापन समिति का स्वरूप कहते हैं--
गाथार्थ-दावानल से, हल से या अग्नि आदि से दग्ध हुए, बंजरस्थान, विरोधरहित, विस्तीर्ण, जन्तुरहित और निर्जन स्थान में मलमूत्र आदि का विसर्जन करे ॥३२१।।
प्राचारवृत्ति-दावानल को वनदाह कहते हैं। हल से अनेक बार भूमि का विदारण होना कृषि है। श्मशान प्रदेश, अंगारों के प्रदेश और अग्नि आदि से जले प्रदेश को मषि कहते हैं । कृत शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करना चाहिए । अर्थात् जहाँ दावानल (अग्नि) लग चुकी है ऐसा प्रदेश, जहाँ हल चल चुका है ऐसा प्रदेश, तथा श्मशान भूमि, अंगारों से अग्नि आदि से जला हआ प्रदेश,स्थण्डिलीकृत-ऊसर प्रदेश, जिसे बंजर भी कहते हैं अर्थात जहाँ पर घास आदि नहीं उगती है ऐसी कड़ी भूमि का प्रदेश, जहाँ पर लोगों का विरोध नहीं है ऐसा प्रदेश, विशालखला हआ बड़ा स्थान, जहाँ पर दो-इन्द्रिय आदि (चिवटी आदि) जन्त नहीं है ऐसा निर्जतक स्थान और विविक्त अर्थात् अपवित्र विष्ठा तथा कूड़ा-कचरा आदि रहित स्थान या जनरहित स्थान इन उपर्युक्त प्रकार के स्थानों में मुनि मल-मूत्रादि का त्याग करे अर्थात् अचित्त भूमि प्रदेश में शौचादि के लिए जावे ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
मलमूत्रादि से क्या-क्या लेना? सो ही बताते हैं
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