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पंचाचाराधिकारः ]
एताभि: समितिभिः सह विहरन् किविशिष्टिः स्यादित्याह -
एवाहि सा जुत्ता समिदोहि महिं विहरमाणो' दु । हिंसादीहि ण लिप्पड़ जीवणिकाआउले साहू ॥ ३२६ ॥
एताभि: समितिभिः सया – सदा सर्वकालं युक्तो मह्यां सर्वत्र विहरमाणः साधुहिंसादिभिर्न लिप्यते जीवनिकायाकुले लोके इति ॥ ३२६ ॥
ननु जीवसमूहमध्ये कः साधुहिंसादिभिर्न लिप्यते ? चेदित्थं न लिप्यते इति दृष्टान्तमाहमणिपत्तं व जहा उदएण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्त ।
तह समिदीहिं ण लिप्पदि साहू काएसु इरियंतो ॥ ३२७॥
पद्मिनीपत्र जले वृद्धिगतमपि यथोदकेन न लिप्यते, स्नेहगुणयुक्तं यतः तथा समितिभिः सह विहरन् साधुः पापेन न लिप्यते कायेषु जीवेषु तेषां वा मध्ये विहरन्नपि यत्नपरो यतः इति ॥ ३२७॥
पुनरपि दृष्टान्तेन पोषयन्नाह -
इन समितियों के साथ विहार करते हुए मुनि के कौन-सी विशेषता प्राप्त होती है ? मो ही बताते हैं
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गाथार्थ - इन समितियों से युक्त साधु हमेशा ही जीव समूह से भरे हुए भूतल पर विहार करते हुए भी हिंसादि पापों से लिप्त नहीं होते हैं । ॥ ३२६ ॥
प्राचारवृत्ति - इन समितियों से सदाकाल युक्त हुए मुनि जीव-समूह से भरे हुए इस लोक में पृथ्वी पर सर्वत्र विहार करते हुए भी हिंसा आदि पापों से लिप्त नहीं होते हैं ।
जीव-समूह के मध्य रहते हुए साधु हिंसादि दोषों से कैसे लिप्त नहीं होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य दृष्टान्त पूर्वक कहते हैं कि इस प्रकार से वह लिप्त नहीं होता है
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गाथार्थ - जैसे चिकनाई गुण से युक्त कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार से साधु जीवों के मध्य समितियों से चर्या करता हुआ लिप्त नहीं होता है | ॥३२७॥ श्राचारवृत्ति - जैसे कमलिनी का पत्ता जल में वृद्धिंगत होते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता, क्योंकि वह स्नेह गुण से युक्त है अर्थात् उस पत्ते में चिकनाई पाई जाती है। उसी प्रकार से समितियों के साथ विहार करता हुआ साधु पाप से लिप्त नहीं होता है । यद्यपि वह जीवों के समूह में रहता है अथवा जीवों के मध्य विहार करता है तो भी वह प्रयत्नपूर्वक क्रियाएँ करता है अर्थात् सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करता है । यही कारण है कि वह पापों से नहीं
बँधा
पुनरपि दृष्टांत के द्वारा इसी का पोषण करते हुए कहते हैं
१ क णोवि ।
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