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সুলাই तस्यानुवीच्यागमानुसारेण सेजनं सधर्मोपकरणस्य सूत्रानुकूलतया सेवनं चापि । एताःपंच भावनास्तृतीयवृतस्य भवन्तीति । एताभिरस्तेयाख्यं व्रतं सम्पूर्ण भवतीति ॥३३६।।
चतुर्थव्रतस्य भावनास्वरूपं विकल्पयन्नाह
महिलालोयण पुव्वरदिसरणसंसत्तवसधिविकहाहि ।
पणिदरसेहिं य विरदी य भावणा पंच बह्ममि ॥३४०॥
महिलानां योषितामवलोकनं दुष्टपरिणामेन निरीक्षणं महिलालोकनं । पूर्वस्य [स्या] रते: गृहस्थावस्थायां चेष्टितस्य स्मरणं चिन्तनं पूर्वरतिस्मरणं । संसक्तवसतिः सद्रव्या सरागा वा। विकथा दुष्टकथाः । पणिदरस—प्रणीतरसा इष्टाहार समदकराः । विरतिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । महिलालोकनाद्विरतिः पूर्वरतिस्मरणाद्विरति: संसक्तवसतेविरतिः विकयाभ्यः स्रीवौरराज्यभक्तकथाभ्यो विरतिः समीहितरसेभ्यो विरतिः। एताः पंच भावना: चतुर्थस्य ब्रह्मव्रतस्य भावना भवन्ति । एताभिश्चतुर्थब्रह्मवतं सम्पूर्ण तिष्ठतीति ।।३४०॥
रोकना; आचार शास्त्र के अनुसार शुद्ध आहार लेना; और 'यह मेरा है यह तेरा है' ऐसा सहधर्मियों के साथ विसंवाद नहीं करना ।
अब चतुर्थव्रत की भावनाओं का स्वरूप कहते हैं---
गाथार्थ-स्त्रियों का अवलोकन, पूर्वभोगों का स्मरण तथा संसक्त वसतिका से विरति, एवं विकथा से और प्रणीतरसों से विरति ये ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं ॥३४०॥
प्राचारवृत्ति-दुष्ट परिणामों से-कुशील भाव से महिलाओं का अवलोकन करना महिलालोकन है। पूर्व में अर्थात् गृहस्थावस्था में जो भोगों का अनुभव किया है उसका स्मरण करना, चिन्तन करना पूर्वरतिस्मरण है। द्रव्य सहित वसतिका या सरागी वसतिका संसक्तवसति हैं। अर्थात् जहाँ स्त्रियों का निवास है या सोना, चाँदी आदि गृहस्थों का धन रखा हुआ है या जहाँ पर रागोत्पादक वस्तुएँ विद्यमान हैं वह स्थान यहाँ संसक्त वसति नाम से कही गयी है। दुष्टकथा अथवा स्त्रीकथा, भक्तकथा, चोरकथा और राज्यकथा आदि को विकथा कहते हैं । प्रणोतरस-इष्ट आहार अथवा मद को करनेवाला आहार अर्थात् इंद्रियों को उत्तेजित करनेवाला, विकार को जागृत करनेवाला आहार। यह 'विरति' शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए । अर्थात् महिलालोकन से विरति, पूर्वरतिस्मरण से विरति, संसक्तवसतिका से विरति, विकथा से विरति और प्रणोतरसों से विरति-ये पाँच भावनाएं चौथे ब्रह्मचर्य व्रत की होती हैं अर्थात् इन भावनाओं से चौथा ब्रह्मबत परिपूर्ण स्थिर रहता है।
विशेषार्थ-श्री गौतमस्वामी के अनुसार स्त्रीकथा, स्त्रीसंसर्ग, स्त्रियों के हास्य विनोद, स्त्रियों के साथ क्रीड़ा और उनके मुख आदि का रागभाव से अवलोकन- इन सबकी विरति रूप ये पाँच भावनाएँ हैं। श्री उमास्वामी ने स्त्रियों की कथाओं का रागपूर्वक सुनने का त्याग, उनके मनोहर अंगों के अवलोकन का त्याग, पूर्व के भोगे हुए विषयों के स्मरण का त्याग, कामोद्दीपक गरिष्ठ रसों के सेवन का त्याग और स्वशरीर के संस्कार का त्याग---ये पाँच भावनाएं ब्रह्मचर्यव्रत की मानी हैं । १ क "रामद।
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