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२६६]
[मूलाचारे
-निह्नवो यत्पठति यस्मात्पठति तयोः कीर्तनं । व्यञ्जनशुद्ध, अर्थशुद्ध व्यञ्जनार्थोभयशूद्धं च यत्पठनं । अनेन न्यायेनाष्टप्रकारो ज्ञाने विनय इति ॥३६७।।
तथा
णाणं सिक्खदि णाणं गुणेदि णाणं परस्स उवदिसदि ।
गाणेण कुणदि णायं णाणविणोदो हवदि एसो॥३६८॥
ज्ञानं शिक्षते विद्योपादानं करोति । ज्ञानं गुणयति परिवर्तनं करोति । ज्ञानं परस्मै उपदिशति प्रतिपादयति । ज्ञानेन करोति न्यायमनुष्ठानं । य एवं करोति ज्ञानविनीतो भवत्येष इति । अथ दर्शनाचारदर्शनविनययोः को भेदस्तथा ज्ञानाचारज्ञानविनययोः कश्चन भेद इत्याशंकायामाह-शंकादिपरिणामपरिहारे यत्नः उपगृहनादिपरिणामानुष्ठाने च यत्नो दर्शनविनयः । दर्शनाचारः पुनः शंकाद्यभावेन तत्त्वश्रद्धानविषयो यत्न इति । तथा कालशुद्धयादिविषयेऽनुष्ठाने यत्नः कालादिविनयः, तथा द्रव्यक्षेत्रभावादिविषयश्च यत्नः । ज्ञानाचारः पुनः कालशुद्धयादिषु सत्सु श्रुतं पठनयलं । ज्ञानविनयः श्रुतोपकरणेषु च यत्नः श्रुतविनयः । तथापनयति तपसा तमोऽज्ञानं उपनयति च मोक्षमार्गे आत्मानं तपोविनयः नियमितमतिः सोऽपि तपोविनय इति ज्ञातव्य इति॥३६॥
और इन दोनों को शुद्ध रखना व्यंजनार्थ उभयशुद्ध विनय है। इस न्याय से ज्ञान का विनय आठ प्रकार से करना चाहिए।
उसी ज्ञान की विशेषता को कहते हैं
गाथार्थ-ज्ञान शिक्षित करता है, ज्ञान गुणी बनाता है, ज्ञान पर को उपदेश देता है, ज्ञान से न्याय किया जाता है । इस प्रकार यह जो करता है वह ज्ञान से विनयी होता है ॥३६८॥
आचारवृत्ति--ज्ञान विद्या को प्राप्त कराता है। ज्ञान अवगुण को गुणरूप से परिवर्तित करता है । ज्ञान पर को उपदेश का प्रतिपादन करता है। ज्ञान से न्याय-सत्प्रवृत्ति करता है जो ऐसा करता है वह ज्ञानविनीत होता है।
प्रश्न-दर्शनाचार और दर्शनविनय में क्या अन्तर है ? उसी प्रकार ज्ञानाचार और ज्ञानविनय में क्या अन्तर है ?
उत्तर-शंकादि परिणामों के परिहार में प्रयत्न करना और उपगहन आदि गुणों के अनुष्ठान में प्रयत्न करना दर्शनविनय है। पुनः शंकादि के अभावपूर्वक तत्त्वों के श्रद्धान में यत्न करना दर्शनाचार है । उसी प्रकार कालशुद्धि आदि विषय अनुष्ठान में प्रयत्न करना काल आदि विनय हैं तथा द्रव्य क्षेत्र और भाव आदि के विषय में प्रयत्न करना यह सब ज्ञानाचार है। काल शद्धि आदि के होने पर श्रुत के पढ़ने का प्रयत्न करना ज्ञान विनय है और श्रुत के उपकरणों में अर्थात् ग्रन्थ, उपाध्याय आदि में प्रयत्न करना श्रुतविनय है।
उसी प्रकार से जो तप से अज्ञान तम को दूर करता है और आत्मा को मोक्ष मार्ग के समीप करता है वह तपोविनय है और नियमितमति होना है वह भी तप का विनय है ऐसा जानना चाहिए।
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