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[ मूलाबारे
र्गाणामुचितानां कर्मक्षयनिमित्तानां परिमितानामपरिहाणिरनुत्सेधः न हानिः कर्तव्या नापि वृद्धिः । षडेव भावाश्चत्वारः पंच वा न कर्तव्याः । तथा सप्ताष्टो न कर्तव्याः । या यस्यावश्यकस्य वेला तस्यामेवासी कर्तव्यो नान्यस्यां वेलायां हानिं वृद्धि प्राप्नुयात् । तथा यस्यावश्यकस्य यावन्तः पठिताः कायोत्सर्गास्तावन्त एव कर्तव्या न तेषां हानिवृद्धिर्वा कार्या इति ॥ ३७० ॥
भक्तिः स्तुतिपरिणाम: सेवा वा । तपसाधिकस्तपोऽधिकः तस्मिंस्तपोधिके । आत्मनोऽधिकतपसि तपसि च द्वादशविधतपोऽनुष्ठाने च भक्तिरनुरागः । शेषाणामनुत्कृष्टतपसामहेलना अपरिभवः । एष तपसि विनयः सर्वसंयतेषु प्रणामवृत्तिर्यथोक्तचारित्रस्य साधोर्भवति ज्ञातव्य इति ॥ ३७१ ॥
पंचमौपचारिक विनयं प्रपंचयन्नाह -
नहीं करना अर्थात् ये आवश्यक छह ही हैं, इन्हें चार वा पाँच नहीं करना तथा सात या आठ भी नहीं करना । जिस आवश्यक की जो वेला है उसी वेला में वह आवश्यक करना चाहिए, अन्य वेला में नहीं । अन्यथा हानि वृद्धि हो जावेगी । तथा, जिस आवश्यक के जितने कायोत्सर्ग बताये गये हैं उतने ही करना चाहिए, उनकी हानि या वृद्धि नहीं करना चाहिए ।
भत्ती तवोधियहि' य तवम्हि अहीलणा य सेसाणं । एसो तवम्हि विणो जहुत्तचारित्तसाहुस्स ॥३७१॥
भावार्थ - उत्तर गुणों के धारण करने में उत्साह रखना, उनका अभ्यास करना और उनके करनेवालों में आदर भाव रखना तथा आवश्यक क्रियाओं को आगम की कथित विधि से उन्हीं उन्हीं के काल में कायोत्सर्ग की गणना से करना यह सब तपोविनय है । जैसे दैवसिक प्रतिक्रमण में वीरभक्ति में १०८ उच्छ्वास पूर्वक ३६ कायोत्सर्ग, रात्रिक प्रतिक्रमण में ५४ उच्छ्वास पूर्वक १८ कायोत्सर्ग, देववंदना में चैत्य पंचगुरु भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग इत्यादि कहे गये हैं सो उतने प्रमाण से विधिवत् करना ।
गाथार्थ - तपोधिक साधु में और तप में भक्ति रखना तथा और दूसरे मुनियों की अवहेलना नहीं करना, आगम में कथित चारित्र वाले साधु का यह तपोविनय है । ।। ३७१ ॥ आचारवृत्ति - जो तपश्चर्या में अपने से अधिक हैं वे तपोधिक होते हैं । उनमें तथा बारह प्रकार के तपश्चरण के अनुष्ठान में भक्ति अर्थात् अनुराग रखना । स्तुति के परिणाम को अथवा सेवा को भक्ति कहते हैं सो इनकी भक्ति करना । शेष जो मुनि अनुत्कृष्ट तप वाले हैं अर्थात् अधिक तपश्चरण नहीं करते हैं उनका तिरस्कार- अपमान नहीं करना । सभी संयतों में प्रणाम की वृत्ति होना -- यह सब तपोविनय है जो कि आगमानुकूल चारित्रधारी साधु के होता है ।
पाँचवें औपचारिक विनय का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं
कहि अ' ।
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