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पंचाचाराधिकारः ]
चारित्रविनयस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह -
दिसापणिहापि य गुत्ती चैव समिदीश्रो ।
एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो ॥ ३६६॥
इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि कषायाः क्रोधादयः तेषामिन्द्रियकषायाणां प्रणिधानं प्रसरहानिरिन्द्रियकषायप्रणिधानं इन्द्रियप्रसरनिवारणं कषायप्रसरनिवारणं । अथवेन्द्रियकषायाणां अपरिणामस्तद्गतव्यापारनिरोधनं । अपि च गुप्तयो मनोवचनकायशुभप्रवृत्तयः । समितय ईर्या भाषणादाननिक्षेपोच्चारप्रस्रवणप्रतिष्ठापनाः । एष चारित्रविनयः समासतः संक्षेपतो भवति ज्ञातव्यः । अत्रापि समितिगुप्तय आचारः । तद्रक्षणोपाये मनचारिविनय इति ॥ ३६६ ॥
तपोविनयस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
उत्तरगुणउज्जोगो सम्मं श्रहियासणाय सद्धा य ।
श्रावासयाणमुचिदाणं अपरिहाणीयणुस्सेहो ॥ ३७०॥
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आतापनाद्युत्तरगुणेषूद्योग उत्साहः । सम्यगध्यासनं तत्कृतश्रमस्य निराकुलतया सहनं । तद्गतश्रद्धा-तानुत्तरगुणान् कुर्वतः शोभनपरिणामः । आवश्यकानां समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यान कायोत्स
चारित्र विनय का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ -- इन्द्रिय और कषायों का निग्रह, गुप्तियाँ और समितियाँ संक्षेप से यह चारित्र विनय जानना चाहिए । ॥ ३६६ ॥
श्राचारवृत्ति - चक्ष, आदि इन्द्रियाँ और क्रोधादि कषायों का प्रणिधान — प्रसार की For होना अर्थात् इन्द्रिय के प्रसार का निवारण करना और कषायों के प्रसार का निवारण करना । अथवा इन्द्रिय और कषायों का परिणाम अर्थात् उनमें होने वाले व्यापार का निरोध करना - यह इन्द्रिय कषाय प्रणिधान है। मन, वचन और काय की शुभ प्रवृत्ति गुप्तियाँ हैं ।
, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उच्चार प्रस्रवण प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ हैं । यह सब चारित्र विनय संक्षेप से कहा गया है । यहाँ पर भी समिति और गुप्तियाँ चारित्राचार हैं और उनकी रक्षा के उपाय में जो प्रयत्न है वह चारित्र विनय है ।
भावार्थ- इन्द्रियों का निरोध और कषायों का निग्रह होना तथा समिति गुप्ति की रक्षा में प्रयत्न करना यह सब चारित्रविनय है ।
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अब तपो विनय का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — उत्तर गुणों में उत्साह, उनका अच्छी तरह अभ्यास, श्रद्धा, उचित आवश्यकों में हानि या वृद्धि न करना तपोविनय है । ||३७०॥
श्राचारवृत्ति - आतापन आदि उत्तर गुणों में उद्यम - उत्साह रखना, उनके करने में श्रम होता है उसको निराकुलता से सहन करना, उन उत्तर गुणों को करने वाले के प्रति श्रद्धा - शुभ भाव रखना । समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं। ये उचित हैं, कर्मक्षय के लिए निमित्त हैं । ये परिमित हैं, इनकी हानि और वृद्धि
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