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पंचाचाराधिकारः]
[३०३ इत्येष प्रत्यक्षविनयः कायिकादिः, गुर्वादिष सत्सु वर्तते यतः, पारोक्षिकोऽपि विनयो यद्गुरोविरहेऽपि गुर्वादिषु परोक्षीभूतेषु यद्वर्तते । आज्ञानिर्देशेन चर्याया वार्हद्भट्टारकोपदिष्टेषु जीवादिपदार्थेषु श्रद्धानं कर्तव्यं तथा तैर्या चोद्दिष्टा व्रतसमित्यादिका तया च वर्तनं परोक्षो विनयः । तेषां प्रत्यक्षतो यः क्रियते स प्रत्यक्षमिति ।।३८०॥
पुनरपि त्रिविधं विनयमन्येन प्रकारेणाह
अह ओपचारियो खलु विणो तिविहा सभासदों भणियो।
सत्त चउम्विह दुविहो बोधन्वो आणुपुवीए ॥३८१॥
अथौपचारिको विनय उपकारे धर्मादिकपरचित्तानुग्रहे भव औपचारिकः खलु स्फुटं त्रिविधस्त्रिप्रकारः कायिकवाचिकमानसिकभेदेन समासत: संक्षेपतो भणित: कथितः । सप्तविधवविधो द्विविधो बोद्धव्यः । आनुपूनिक्रमेण कायिक: सप्तप्रकारो वाचिकश्चतुविध: मानसिको द्विविध इति ॥३१॥
कायिकविनयं सप्तप्रकारमाह
प्राचारवत्ति-यह सब ऊपर कहा गया कायिक आदि विनय प्रत्यक्ष विनय है, क्योंकि यह गुरु के रहते हुए उनके पास में किया जाता है। और, गुरुओं के विरह में-- उनके परोक्ष रहने पर अर्थात् अपने से दूर हैं उस समय भी जो उनका विनय किया जाता है वह परोक्ष विनय है । वह उनकी आज्ञा और निर्देश के अनुसार चर्या करने से होता है। अथवा अर्हन्त भट्टारक द्वारा उपदिष्ट जीवादि पदार्थों में श्रद्धान करना तथा उनके द्वारा जो भी द्रत समिति आदि चर्याएँ कही गई हैं, उनरूप प्रवत्ति करना यह सब परोक्ष विनय है। अर्थात उनके प्रत्यक्ष में किया गया विनय प्रत्यक्ष विनय तथा परोक्ष में किया गया नमस्कार, आज्ञा पालन आदि विनय परोक्ष विनय है।
पुनः इन्हीं तीन प्रकार की विनय को अन्य रूप से कहते हैं
गाथार्थ-यह औपचारिक संक्षेप से कायिक, वाचिक और मानसिक ऐसा तीन प्रकार कहा गया है । वह क्रम से सातभेद, चार भेद और दो भेदरूप जानना चाहिए ॥३८१॥
प्राचारवृत्ति-जो उपचार अर्थात् धर्मादि के द्वारा पर के मन पर अनुग्रह करनेवाला होता है वह औपचारिक विनय कहलाता है। यह औपचारिक विनय प्रकट रूप से कायिक, वाचिक और मानसिक भेदों की अपेक्षा संक्षेप में तीन प्रकार का कहा गया है। उसमें क्रम से सात, चार और दो भेद माने गये हैं अर्थात् कायिक विनय सात प्रकार का है, वाचिक विनय चार प्रकार का है और मानसिक विनय दो प्रकार का है।
कायिक विनय के सात प्रकार को कहते हैं
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